के आश्रय तृष्णारूपी नदी का प्रवाह चलता है और नाना प्रकार के सङ्कल्परूपी तरङ्ग को फैलाता है। जैसे मेघ को देखकर मोर प्रसन्न होता है वैसे ही तृष्णारूपी मोर भोगरूपी मेघ को देखकर प्रसन्न होता है इससे सब दुःखों का मूल तृष्णा है। जब मैं किसी सन्तोषादि गुण का आश्रय करता हूँ तब तृष्णा उसको नष्ट कर देती है। जैसे सुन्दर सारङ्गी को चूहा काट डालता है। वैसे ही सन्तोषादि गुणों को तृष्णा नष्ट करती है। हे मुनीश्वर! सबसे उत्कृष्ट पद में विराजने का मैं यत्न करता हूँ पर तृष्णा मुझे विराजने नहीं देती। जैसे जाल में फँसा हुआ पक्षी आकाश में उड़ने का यत्न करता है परन्तु उड़ नहीं सकता वैसे ही अनात्म से आत्मपद को प्राप्त नहीं हो सकता। स्त्री, पुरुष, पुत्र और कुटुम्ब का उसने जाल बिछाया है उसमें फँसा हूँ निकल नहीं सकता। और आशारूपी फाँसी में बँधा हुआ कभी ऊर्ध्व को जाता हूँ कभी अधःपात होता हूँ, घटीयन्त्र की नाई मेरी गति है। जैसे इन्द्र का धनुष मलीन मेघ में बड़ा और बहुत रङ्गों से भरा होता है परन्तु मध्य में शून्य है वैसे ही तृष्णा मलिन अन्तःकरण में होती है सो बढ़ी हुई है और सद्गुणों से रहित है। यह ऊपर से ही देखने मात्र सुन्दर है परन्तु इससे कुछ कार्य नहीं सिद्ध होता। हे मुनीश्वर! तृष्णारूपी मेघ है उससे दुःखरूपी बूदें निकलती हैं और तृष्णारूपी काली नागिन है उसका स्पर्श तो कोमल है परन्तु विष से पूर्ण है उसके डसने से मृतक हो जाता है। तृष्णारूपी बादल है सो आत्मारूपी सूर्य के आगे आवरण करता है। जब अज्ञानरूपी पवन चले तब तष्णारूपी बादल का नाश होकर आत्मपद का साक्षात्कार हो। ज्ञानरूपी कमल को सङ्कोच करने वाली तृष्णारूपी निशा है। उस तृष्णारूपी महाभयानक कालीरात्रि में बड़े धीरवान् भी भयभीत होते हैं और नयनवालों को भी अन्धा कर डालती है। जब यह आती है तब वैराग्य और अभ्यासरूपी नेत्र को अन्धा कर डालती। अर्थात् सत्य असत्य विचारने नहीं देती। हे मुनीश्वर! तृष्णारूपीडाकिनी है वह सन्तोषादिक गुणों को मार डालती है तृष्णारूपी कन्दरा है उसमें मोहरूपी उन्मत्त हाथी गर्जते हैं। तृष्णारूपी समुद्र है उसमें आपदारूपी नदी आकर प्रवेश करती है इससे वही उपाय