पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४२०

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योगवाशिष्ठ।

वत् क्रोध से पूर्ण थे, उनसे कहने लगा, हे मुनीश्वर! जो मर्यादा और परावर परमात्मा के वेत्ता हैं वे क्रोध नहीं करते और जो कोई क्रोध करे तो भी वे मोह के वश होकर क्रोधवान् नहीं होते। तुम कारण बिना क्यों मोहित होकर क्रोध को प्राप्त हुए हो? तुम ब्रह्मतनय तपस्वी हो और हम नीति के पालक हैं। तुम हमारे पूजने योग्य हो—यही नीति की इच्छा है और तप के बल से तुम क्षोभ मत करो, तुम्हारे शाप से मैं भस्म भी नहीं होता। प्रलयकाल की अग्नि भी मुझको दग्ध नहीं कर सकती तो तुम्हारे शाप से मैं कब भस्म हो सकता हूँ। हे मुनीश्वर! मैं तो अनेक ब्रह्मण्ड भक्षण कर गया हूँ, और कई कोटि, ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र मैंने ग्रास लिये हैं, तुम्हारा शाप मुझको क्या कर सकता है? जैसे आदि नीति ईश्वर ने रची है तैसे ही स्थित है। हम सबके भोक्ता हुए हैं और तुमसे ऋषि हमारे भोग हुए हैं, यही आदि नीति है। हे मुनीश्वर! अग्नि स्वभाव से ऊर्ध्व को जाता है और जल स्वभाव से अधः को जाता है, भोक्ता को भोग प्राप्त होता और सब सृष्टि काल के मुख में प्राप्त होती है। आदि परमात्मा की नीति ऐसे ही हुई है और जैसे रची है तैसे ही स्थिति है पर जो निष्कलङ्क ज्ञानदृष्टि से देखिये तो न कोई कर्ता है, न भोक्ता है, न कारण है,न कार्य है, एक अद्वैतसत्ता ही है और जो अज्ञान कलंकदृष्टि से देखिये तो कर्त्ता भोक्ता अनेक प्रकार भ्रम भासते हैं। हे ब्राह्मण! कर्चा भोक्ता प्रादिक भ्रम असम्यक् बान से होता है,जब सम्यक् ज्ञान होता है तब कर्ता, कार्य और भोक्ता कोई नहीं रहता। जैसे वृक्ष में पुष्प स्वभाव से उपज पाते हैं और स्वभाव से ही नष्ट हो जाते हैं तैसे ही भूत पाणी सृष्टि में स्वाभाविक फुर पाते हैं और फिर स्वाभाविक रीति से ही नष्ट हो जाते हैं। ब्रह्मा उत्पन्न करता है और नष्ट भी करता है। जैसे चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब जल के हिलने से हिलता भासता है और ठहरने से ठहरा भासता है तैसे ही मन के फुरने से आत्मा में कर्त्तव्य भोक्तव्य भासता है वास्तव में कुछ नहीं; सब मिथ्या है। जैसे रस्सी में सर्प भ्रम से भासता है तैसे ही आत्मा में कर्त्तव्य भोक्तव्य भ्रम से भासता है। इससे क्रोध मत करो, यह दुष्टकर्म आपदा का कारण है। हे मुनीश्वर! मैं तुमको