पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४२१

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स्थिति प्रकरण।

यह वचन अपनी विभूति और अभिमान से नहीं कहता। यह स्वतः ईश्वर की नीति है और हम उसमें स्थित हैं। जो बोधवान पुरुष हैं वे अपने प्रकृत प्राचार में विचरते हैं और अभिमान नहीं करते। जो कर्तव्य के वेत्ता हैं वे बाहर से प्रकृत आचार करते हैं और हृदय से सुषुप्ति की नाई स्थित रहते हैं। वह ज्ञान दृष्टि, धैर्य और उदार दृष्टि कहाँ गई जो शास्त्र में प्रसिद्ध है? तुम क्यों अन्धे की नाई मोहमार्ग में मोहित होते हो? हे साधो! तुम तो त्रिकालदर्शी हो,अविचार से मूर्ख की नाई जगत् में क्यों मोह को प्राप्त होते हों? तुम्हारा पुत्र अपने कर्मों के फल को प्राप्त हुआ है और तुम मूर्ख की नाई मुझको शाप दिया चाहते हो। हे मुनीश्वर! इस लोक में सब जीवों के दो-दो शरीर हैंएक मनरूप और दूसरा आधिभौतिक। आधिभौतिक शरीर अत्यन्त विनाशी है और जहाँ इसको मन प्रेरता है वहाँ चला जाता है—आपसे कुछ कर नहीं सकता। जैसे सारथी भला होता है तो रथ को भले स्थान को ले जाता है और जो सारथी भला नहीं होता तो रथ को दुःख के स्थान में ले जाता है तैसे ही यदि जो मन भला होता है तो उत्तम लोक में जाता है जो दुष्ट होता है तो नीच स्थान में जाता है। जिसको मन असत् करता है सो असत् भासता है और जिसको मन सत् करता है वह सत् भासता है। जैसे मिट्टी की सेना बालक बनाते और फिर भङ्ग करते हैं, कभी सत् करते, कभी असत् करते हैं और जैसे करते हैं तैसे ही देखते हैं, तैसे ही मन की कल्पना है। हे साधो! चित्तरूपी पुरुष है, जो चित्त करता है वह होता है और जो चित्त नहीं करता वह नहीं होता। यह जो फुरना है कि यह देह है, ये नेत्र हैं; ये अङ्ग हैं इत्यादिक सब मनरूप हैं। जीव भी मन का नाम है और मन का जीना जीव है। वही मन की वृत्ति जब निश्चयरूप होती है तब उसका नाम बुद्धि होता है, जब अहंरूप धारती है तब उसका नाम अहंकार होता है और जब देह को स्मरण करती है तब उसका नाम चित्त होता है। इससे पृथ्वी रूपी शरीर कोई नहीं, मन ही दृढ़ भावना से शरीररूप होता है और वही आधिभौतिक हो भासता है और जब शरीर की भावना को त्यागता