पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४२२

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योगवशिष्ठ।

है तब चित्त परमपद को प्राप्त होता है। जो कुछ जगत् है वह मन के फुरने में स्थित है, जैसा मन फुरता है तैसा ही रूप हो भासता है। तुम्हारे पुत्र शुक्र ने भी मन के फुरने से अनेक स्थान देखे हैं। जब तुम समाधि में स्थित थे तब वह विश्वाची अप्सरा के पीछे मन से चला गया और स्वर्ग में जा पहुँचा। फिर देवता होकर मन्दारवृक्षों में अप्सरा के साथ विचरने लगा और फिर पारिजात तमाल आदि वृक्ष और नन्दन वन में विचरता रहा। इसी प्रकार बत्तीस युग पर्यन्त विश्वाची अप्सरा के साथ लोकपालों के स्थान इत्यादि में विचरता रहा और जैसे भँवरा कमल को सेवता है तैसे ही तीव्र संवेग से भोग भोगता रहा। जब पुण्य क्षीण हुआ तव वहाँ से इस भाँति गिरा जैसे पका फल वृक्ष से गिरता है। तब देवता का शरीर आकाशमार्ग में अन्तर्धान हो गया और भूमिलोक में पा पड़ा। फिर धान में भाकर ब्राह्मण के वीर्य द्वारा ब्राह्मणी का पुत्र हुथा, फिर मालवदेश का राज्य किया और फिर धीवर का जन्म पाया। फिर सूर्यवंशी राजा हुआ,फिर विद्याधर हुथा और कल्प पर्यन्त विद्याधरों में विद्यमान रहा और फिर विन्ध्याचल पर्वत में लय होकर कान्त देश में धीवर हुआ। फिर तरङ्गीत देश में राजा हुआ, फिर कान्तदेश में हरिण हुआ भोर वनमें विचरा और फिर विद्यावान गुरु हुमा। निदान श्रीमान विद्याधर हुमा और कुण्डलादि भूषणों से सम्पन बड़ा ऐश्वर्यवान गन्धवों का मुनिनायक हुमा और कला पर्यन्त वहाँ रहा। जब प्रलय होने लगी तव पूर्व के सब लोक भस्म हो गये-जैसे अग्नि में पतङ्ग भस्म होते हैं-तब तुम्हारा पुत्र निराधार और निराकार वासना से आकाशमार्ग में भ्रमता रहा। जैसे भालय विना पक्षी रहता हे तेसे ही वह रहा और जब ब्रह्मा की रात्रि व्यतीत हुई और सृष्टि की रचना बनी तब वह सतयुग में ब्राह्मण का बालक वसुदेवनाम हो गङ्गा के तट पर तप करने लगा। अब उसे पाठसौ वर्ष तप करते पीते हैं, जो तुम भी ज्ञानदृष्टि से देखोगे तो सब वृत्तान्त तुमको भास आवेगा। इससे देखो कि इसी प्रकार है अथवा किसी और प्रकार है। इति

श्रीयोगवाशिष्ठे स्थितिप्रकरणे कालवाक्यनामदशमस्सर्गः॥१०॥