पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४२३

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स्थिति प्रकरण।

काल बोले, हे मुनीश्वर! ऐसी गङ्गा के तट पर जिसमें महातरङ्ग उबलते और झनकार शब्द होते हैं तुम्हारा पुत्र तप करता है। शिर पर उसके बड़ी जटा है और सर्व इन्द्रियों को उसने जीत लिया है। जो तुमको उसके मन के विस्तार देखने की इच्छा है तो इन नेत्रों को मूंदकर ज्ञान के नेत्रों से देखो। हे रामजी! जब इस प्रकार जगत् के ईश्वर काल ने, जिसकी समदृष्टि है, कहा, तब मुनीश्वर ने नेत्रों को मूंदकर, जैसे कोई अपनी बुद्धि में प्रतिबिम्ब देखे। जाननेत्रों से एक मुहूर्त में अपने पुत्र का सबवृत्तान्त देखा और फिर मन्दराचल पर्वत पर जो भृगुशरीर पड़ा था उसमें प्रवेशकर मन्तवाहक शरीर से अपने अप्रभाग में काल भगवान को देखकर पुत्र को गङ्गा के तट पर देखा। यह दशा देख वह माश्चर्य को प्राप्त हुमा भौर विकारदृष्टि को त्यागकर निर्मलभाव से वचन कहे। हे भगवन्! तीनों काल के ज्ञाता ईश्वर! हम बालक हैं, इसी से निर्दोष हैं। तुम सरीखे बुद्धिमान और तीन काल अमलदर्शी हैं। हे भगवन! ईश्वर की माया महाआश्चर्यरूप है जो जीवों को अनेक भ्रम दिखाती है और बुद्धिमान को भी मोह करती है तो मूर्खों की क्या बात है? तुम सब कुछ जानते हो, जीवों की सब वार्ता तुम्हारे अन्तर्गत है। जैसी जीवों के मन की वृत्ति होती है उसके अनुसार वे भ्रमते हैं। वह मन की वृत्ति सब तुम्हारे अन्तर्गत फुरती है। जैसे इन्द्रजाली अपनी बाजी का वेत्ता होता है तैसे ही तुम इन सबों के वेत्ता हो। हे भगवन्! मैंने भ्रम को प्राप्त होकर क्रोध इस कारण से किया कि मेरे पुत्र की मृत्यु न थी वह चिरञ्जीवी था और उसको मैं मृतक हुआ देखके भ्रम को प्राप्त हुमा।हमारा क्रोध आपदा का कारण नहीं था, क्योंकि जब मैंने पुत्र का शरीर निर्जीव देखा तब कहा कि भकारण मृतक हुआ इस कारण क्रोध हुआ। क्रोध भी नीतिरूप है अर्थात् जो क्रोध का स्थान हो वहाँ क्रोध चाहिए। मैंने विचारके क्रोध नहीं किया है अर्थात् पुत्र की अवस्थादेखके क्रोध किया, निर्जीव शरीर को देखके क्रोध किया, इसी से यह क्रोध आपदा का कारण नहीं। अयुक्ति कारण से जो क्रोध होता वह आपदा का कारण है मोर युक्ति से जो क्रोध है वह सम्पदा का कारण है यह कर्तव्य संसार