पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४२५

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स्थिति प्रकरण।

अधः हो अथवा ऊर्ध्व हो परन्तु आपको जलरूप जाने। तैसे ही जो पुरुष परिच्छेद देहादि क में अहं प्रतीत करता है सो अनेक भ्रम देखता है, सम्यकदर्शी सब आत्मरूप जानता है। सर्व जीव आत्मरूप समुद्र के तरङ्ग हैं, अज्ञान से भिन्न हैं और ज्ञान से वही रूप है। आत्मारूपी समुद्र सम, स्वच्छ, शुद्ध आदि रूप, शीतल, अविनाशी और विस्तृत अपनी महिमा में स्थित है और सदा आनन्दरूप है जैसे कोई जल में स्थित हो और तट पर पहाड़ में अग्नि लगी हो तो उस अग्नि का प्रतिविम्ब जल में देख वह कहे कि मैं दग्ध होता हूँ । जैसे भ्रम से उसको ज्वलनता भासती है तैसे ही जीव को आभासरूप जगत् दुःखदायक भासता है। जैसे तट के वृक्ष, पर्वतादि पदार्थ जल में नाना प्रकार प्रतिविम्बवत् भासते हैं तैसे ही आभासरूप जगत् को जीव नाना रूप मानते हैं। जैसे एक समुद्र में नाना तरङ्ग भासते हैं तैसे ही आत्मा में अनेक आकार जगत् भासता है, वास्तव में दैत कुछ नहीं सर्व शक्तिरूप ब्रह्मसत्ता ही है उसी से विचित्ररूप चञ्चल भासता है। पर वह एकरूप अपने आपमें स्थित है। ब्रह्म में जगत् फुरता है और उसी में लीन होता है। जैसे समुद्र में तरङ्ग उपजते हैं और फिर उसी में लीन होते हैं, कुछ भेद नहीं, पूर्ण में पूर्ण ही स्थित है जैसे जल से तरङ्ग और ईश्वर से जगत और पत्र, डाल, फूल, फल, वृक्षरूप हैं तसे ही सब जगत् आत्मरूप है और वह आत्मा अनेक शक्तिरूप हैं। जैसे एक पुरुष अनेक कर्म का कर्ता होता है और जैसा कर्म करता है तैसे ही संग को पाता है अर्थात् पाठ करने से पाठक और पाक करने से पाचक और जाप करने से जापक आदि अनेक नाम धरता है, तैसे ही एक आत्मा अनेक शक्ति धारता है। जैसे जिस आकार की परछाहीं पड़ती है तैसा ही प्रकार भासता है और एक मेघ में अनेक रङ्गसहित इन्द्रधनुष भासता है तैसे ही यह भनेक भ्रम पाता है‌। हे साधो! सब जगत् ब्रह्मा से फुरा है और जो जड़ भासते हैं वे भी चैतन्यसत्ता से फुरे हैं। जैसे मकड़ी अपने मुख से जाला निकालकर आप ही पास लेती है तैसे ही चैतन्य से जड़ उत्पन्न होके फिर लीन हो जाते हैं। चैतन्य जीव से सुषुप्ति जड़ता उपजती है