पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४२६

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योगवाशिष्ठ।

और फिर उसी में निवृत्त होती है। इससे अपनी इच्छा से यह पुरुष बन्धवाच् होता है और अपनी इच्छा से ही मुक्त होता है। जब बहिर्मुख देहादिक अभिमान से मिलता है तब आपको बन्धवान करता है—जैसे घुरान आप ही गृह रचके बन्धवान होता है और जब पुरुषार्थ करके अन्तर्मुख होता है तब मुक्ति पाता है। जैसे अपने हाथ के बल से बन्धन को तोड़ के कोई बली निकल जाता है। हे साधो! ईश्वर की विचित्ररूप शक्ति है, जैसी शक्ति फुरती है तैसा ही रूप दिखाती है। जैसे ओस आकाश में उपजती है और उसी को ढाँप लेती है तैसे ही आत्मा में जो इच्छाशक्ति उपजती है वहीावरण कर लेती है और उसी में तन्मयरूप हो जाती है। वास्तव में जीव को बन्धन और मोक्ष नहीं है, बन्ध और मोक्ष दोनों शब्द भ्रान्तिमात्र हैं। मैं नहीं जानता कि बन्ध और मोक्ष लोक में कहाँ से पाये हैं। आत्मा को न बन्धन है और न मोक्ष है, ऐसे सवरूप को असत्यरूप ने पास कर लिया है जो कहता है कि मैं दुःखी व सुखी हूँ, दुबला हूँ व मोटा हूँ इत्यादि माया महाआश्चर्यरूप है जिसने जगत् को मोहित किया है। हे मुनीश्वर! जब चित्तसंवित् कलनारूप होता है अर्थात् दृश्य से मिलके स्फूर्तिरूप होता है तब कुसवारी की नाई आप ही आपको बन्धन करता है और जब दृश्य से रहित अन्तर्मुख होता है तब शुद्ध मोक्षरूप भासता है। बन्ध और मुक्ति दोनों मन कीशक्ति हैं,जैसा-जैसा मन फुरता है तैसा तैसा रूप भासता है। अनेक शक्ति प्रात्मासे अनन्यरूप है, सब भात्मा से उपजा है और भात्मा में ही स्थित है। जैसे समुद्र में तरङ्ग उपजते हैं और उसी में स्थित होकर लीन हो जाते हैं और चन्द्रमा से किरणे उदय होकर भिन्न भासती पर फिर उसी में लीन होती हैं तैसे ही जीव उपज कर लीन हो जाते हैं। परमात्मारूपी महासमुद्र है, चेतनता रूपी उसमें जल है जिससे जीवरूपी अनेक तरङ्ग उपजते हैं और उसी में स्थित होकर फिर लीन हो जाते हैं। कोई तरङ्ग ब्रह्मारूप, कोई विष्णु, कोई रुद्र होकर प्रकाशते हैं और कोई लहर प्रमाद से रहित यम, कुबेर, इन्द्र, सूर्य, अग्नि, मनुष्य, देवता, गन्धर्व, विद्याधर, यक्ष, किनर मादिक रूप होकर उपजते हैं और फिर लीन हो जाते हैं। कोई स्थित होकर