पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४२७

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स्थिति प्रकरण।

चिरकाल पर्यन्त रहते हैं—जैसे ब्रह्मादिक, कोई उपजकर और कुछ काल रहकर विध्वंस हो जाते हैं—जैसे देवता, मनुष्यादिक और कोई कीट सर्प आदिक फुरते हैं और चिरकाल भी रहते हैं और अल्पकाल में भी नष्ट हो जाते हैं। कोई ब्रह्मादिक उपजकर अप्रमादी रहते हैं और कोई प्रमादी हो जाते हैं और तुच्छ शरीर होते हैं यह संसारस्वान आरम्भ है। और दृढ़ होकर भासता है।

इति श्रीयोगवाशिष्ठेस्थितिप्रकरणे संसारावर्तवर्णनन्नामेकादशस्सर्गः॥११॥

काल बोले, हे मुनीश्वर! देवता, दैत्य, मनुष्यादिक आकार ब्रह्म से अभिन्नरूप हैं और यह सत् है। जब मिथ्या संकल्प से जीव कलङ्कित होता है तब जानता है कि "मैं ब्रह्म नहीं"। इस निश्चय को पाके मोहित होता है और मोहित हुआ अधः को चला जाता है। यद्यपि वह ब्रह्म से अभिन्नरूप है और उसमें स्थित है तो भी भावना के वश से आपको भिन्न जानके मोह को प्राप्त होता है। शुद्ध ब्रह्म में जो संवित् का उल्लेख होता है वही कलङ्कितरूप कर्म का बीज है, उससे आगे विस्तार को पावता है। जैसे जल जिस जिस बीज से मिलता है उसी रस को प्राप्त होता है तैसे ही संवित् का फुरना जैसे कर्म से मिलता है तैसी गति को प्राप्त होता है। संकल्प से कलङ्कित हुमा अनेक दुःख पाता है। यह प्रमादरूप कर्म कञ्ज के बीज सा है जिसको जो मुट्ठी भर भर बोता है सो अपने दुःख का कारण है और यह जगत् आत्मरूप समुद्र की लहर है जो विस्तार से फुरती है और कोई ऊर्ध्व को जाती है और कोई अधः को जाती है फिर लीन हो जाती है। ब्रह्मा आदि तृण पर्यन्त इन सबका यही धर्म है जैसे पवन का स्पन्द धर्म हे तैसे ही इनका भी है, पर उनमें कोई निर्मल पूजने योग्य ब्रह्मा, विष्णु, रुद्रादिक हैं, कुछ मोह संयुक्त है—जैसे देवता, मनुष्य, सर्प, कोई अनन्त मोह में स्थित हैं—जैसे पर्वत, वृक्षादिक, कोई अज्ञान से मूढ़ हैं—जैसे कृमि, कोगदिक योनि, ये दूर से दूर चले गये हैं। जैसे जल के प्रवाह से तृण चला जाता है तैसे ही देवता, मनुष्य, सादिक कितने भ्रमवान भी होते हैं और कोई तट के निकट आके फिर बह जाते हैं अर्थात् सत्सङ्ग और सदशास्त्रों को पाके