पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४२८

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योगवाशिष्ठ।

फिर माया के व्यवहार में बह जाते हैं और यमरूप चूहा उनको काटता है। एक अल्प मोह को प्राप्त होकर फिर ब्रह्मसमुद्र में लीन हुए हैं, कोई अन्तर्गत ब्रह्मसमुद्र को जानके स्थित हुए हैं और तम अज्ञान से तरे हैं, कोई अनेक कोटि जन्म में प्राप्त होते हैं और अधः से ऊर्च को चले जाते हैं। और फिर ऊर्ध्व से अधः को चले आते हैं। इसी प्रकार प्रमाद से जीव अनेक योनि दुःख भोगते हैं। जब आत्मज्ञान होता है तब आपदा से छूट के शान्तिमान् होते हैं।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे स्थितिप्रकरणे उत्पत्तिविस्तास्वर्णनन्नाम
द्वादशस्सर्गः॥१२॥

काल बोले, हे साधो! ये जितने जगत् भूतजाति विस्तार हैं वे सब आत्मरूप समुद्र के तरङ्ग हैं—एक ही अनेक विचित्र विस्तार को प्राप्त हुआ है। जैसे वसन्त ऋतु में एक ही रस अनेक प्रकार के फल फूलों को धारता है इन जीवों में जिसने मन को जीतकर सर्वात्मा ब्रह्म का दर्शन किया है वह जीवन्मुक्त हुआ है। मनुष्य, देवता, यक्ष, किन्नर, गन्धर्वादिक सब भ्रमते हैं, इनसे इतर स्थावर मूद अवस्था में हैं उनकी क्या बात करनी है। लोकों में तीन प्रकार के जीव हैं—एक अज्ञानी जो महामूढ़ हैं, दूसरे जिज्ञासु हैं और तीसरे बानवान्। जो मूढ़ हैं उनको शास्त्र में श्रवण और विचार में कुछ रुचि नहीं होती और जो जिज्ञासु हैं उनके निमित्त ज्ञानवानों ने शास्त्र रचे हैं। जिस जिस मार्ग से वे प्रबुध आत्मा हुए हैं उस उस प्रकार के उन्होंने शास्त्र रचे हैं और उससे और जीव भी मोक्षभागी होते हैं। हे मुनीश्वर! सत्शास्त्र जो ज्ञानवानों ने रचे हैं उनको जब निष्पाप पुरुष विचारता है तब उसको निर्मल बोध उपजकर मोह निवृत्त होता है और जब निर्मल बुद्धि होती है तब जैसे सूर्य के प्रकाश से तम नष्ट होता है तैसे ही सदशास्त्र के अभ्यास से मोह नष्ट होता है। जो मूद अज्ञानी हैं वे आत्मा में प्रमाद और विषय की तृष्णा से मोह को प्राप्त होते हैं। जैसे अँधेरी रात्रि हो और ऊपर से कुहिरा भी गिरता हो तब तम से तम होता है तैसे ही मूढ़ मोह से मोह को प्राप्त होते हैं और अपने संकल्प से आप ही दुःखी होते हैं। जैसे बालक अपनी परछाई में