पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४२९

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स्थिती प्रकरण।

वैताल कल्पकर आप ही दुःखी होता है इससे जितने भूतजात हैं उन सबके सुख-दुःख का कारण मनरूपी शरीर है, जैसे वह फुरता है तैसी गति को प्राप्त होता है। मांसमय शरीर का किया कुछ सफल नहीं होता और असत् मांस आदिक का मिला हुआ जो आधिभौतिक शरीर है वह मन के संकल्प से रचा है—वास्तव में कुछ नहीं। संकल्प की दृढ़ता से जो आधिभौतिक भासने लगा है वह स्वप्न शरीर की नाई है। मनरूपी शरीर से जो तेरे पुत्र ने किया है उसी गति को वह प्राप्त हुआ है। इसमें हमारा कुछ अपराध नहीं है। हे मुनीश्वर! अपनी वासना के अनुसार जैसा जो कोई कर्म करता है तैसे ही फल को प्राप्त होता है। मांसमय शरीर से कुछ नहीं होता। जैसी-जैसी तीव्र भावना से तेरे पुत्र का मन फुरता गया है तैसी-तैसी गति वह पाता गया है। बहुत कहने से क्या है, उठो अब वहाँ चलो जहाँ वह ब्राह्मण का पुत्र होकर गङ्गा के तट पर तप करने लगा है। इतना कहकर वाल्मीकिजी बोले, हे भारद्वाज! इस प्रकार जब काल भगवान ने कहा तब दोनों जगत् की गति को हँसके उठ खड़े हुए और हाथ से हाथ पकड़के कहने लगे कि ईश्वर की नीति आश्चर्यरूप है जो जीवों को बड़े भ्रम दिखाती है। जैसे उदयाचल पर्वत से सूर्य उदय होकर आकाशमार्ग में चलता है तैसे ही प्रकाश की निधि उदार आत्मा दोनों चले। इस प्रकार जब वशिष्ठजी ने रामजी से कहा तब सूर्य अस्त हुआ और सर्व सभा अपने अपने स्थान को गई। दिन हुए फिर अपने अपने आसन पर आन बैठे।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे स्थिति प्रकरणे भृगुआसनन्नाम त्रयोदशसंगः॥१३॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! काल और भृगुजी दोनों मन्दराचल पर्वत से भूमि पर उतरे और देवताओं के महासुन्दर स्थानों को लाँघते लाँघते वहाँ गये जहाँ ब्राह्मण शरीर से गङ्गा के किनारे शुक्र समाधि में लगा था उसका मनरूपी मृग अचल होकर विश्राम को प्राप्त हुमा था। जैसे चिरकाल का थका चिरकाल पर्यन्त विश्राम करता है तैसे ही उसने विश्राम पाया। वह अनेक जन्मों की चिन्तना में भटकता-भटकता अब तप में लगा था और राग-द्वेष से रहित होकर परमानन्दपद