पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३७
वैराग्य प्रकरण।

मुझसे कहिये जिससे तृष्णारूपी दुःख से छहूँ। हे मुनीश्वर! अग्नि और खङ्ग के प्रहार और इन्द्र के वज्र से भी ऐसा दुःख नहीं होता जैसा दुःख तृष्णा से होता है सो तृष्णा के प्रहार से घायल हुआ मैं बड़े दुःखको पाता हूँ और तृष्णारूपी दीपक जलता है उसमें सन्तोषादिक पतङ्ग जल जाते हैं। जैसे जल में मछली रहती है सो जल में कंकड़ रेत आदि को देख मांस जानकर मुख में लेती है उससे उसका कुछ अर्थ सिद्ध नहीं होता वैसे ही तृष्णा भी जो कुछ पदार्थ देखती है उसके पास उड़ती है और तृप्ति किसी से नहीं होती। तृष्णारूपी एक पक्षिणी है सो इधर उधर उड़ जाती हे और स्थिर कभी नहीं होती तृष्णारूपी वानर है वह कभी किसी वृक्ष पर भोर कभी किसी के ऊपर जाता है स्थिर कहीं नहीं होता। जो पदार्थ नहीं प्राप्त होता उसके निमित्त यत्न करता है और भोग से तृप्त कदाचित नहीं होता। जैसे घृत की माहुति से अग्नि तृप्त नहीं होती वैसे ही जो पदार्थ प्राप्त योग्य नहीं है उसकी ओर भी तृष्णा दौड़ती है शान्ति नहीं पाती। हे मुनीश्वर! तृष्णारूपी उन्मत्त नदी है वह बहे हुए पुरुष को कहाँ से कहाँ ले जाती है। कभी तो पहाड़ केवाज में ले जाती और कभी दिशा में ले जाती है। तृष्णारूपी नदी है उसमें वासनारूपी अनेक तरंग उठते हैं कदाचित् मिटते नहीं। तृष्णारूपी नटिनी है और जगतरूपी अखाड़ा उसने लगाया है उसको शिर ऊँचा कर देखती और मूर्ख बड़े प्रसन्न होते हैं जैसे सूर्य के उदय होने से सूर्यमुखी कमल खिलकर ऊँचा होता है वैसे ही मूर्ख भी तृष्णा को देखकर प्रसन्न होता है। तृष्णारूपी वृद्ध स्त्री है जो पुरुष इसका त्याग करता है तो उसके पीछे लगी फिरती है कभी उसका त्याग नहीं करती। तृष्णारूपी डोर है उसके साथ जीव रूपी पशु बंधे हुए भ्रमते फिरते हैं। तृष्णा दुष्टिनी है जब शुभगुण देखती है तब उसको मार डालती है। उसके संयोग से मैं दीन होता हूँ। जैसे पपीहा मेघ को देखकर प्रसन्न होता है और बूंद ग्रहण करने बगता है और मेघ को जब पवन ले जाता है तब पपीहा दीन हो जाता है वैसे ही तृष्णा जब शुभ गुणों का नाश करती है तब मैं दीन हो जाता हूँ। हे मुनीश्वर जैसे सूखे तृण को पवन उड़ाकर दूर से दूर