पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४३०

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योगवाशिष्ठ।

में स्थित था। उसको देखके काल ने बड़े शब्द से कहा, हे मृगो! देख, यह समाधि में स्थित है अब इसे जगाइये। तब उसकी कलना फुरने से और बाहर शब्द से, जैसे मेघ के शब्द से मोर जागे तैसे ही शुक्रजी जागे और ओन्मीलित नेत्र खोलके काल और भृगु को अपने आगे देखा पर पहिचाना नहीं। उसने देखा कि दोनों के श्याम आकार और बड़े प्रकाशरूप हैं—मानों साक्षात् विष्णु और सदाशिवजी हैं। उन्हें देख वह उठ खड़ा हुआ भोर प्रीतिपूर्वक चरणवन्दना और नम्रतासहित आदर करके कहा कि मेरे बड़े भाग्य हैं जो प्रभु के चरण इस स्थान में आये। वहाँ एक शिला पड़ी थी उस पर वे दोनों बैठ गये तब वसुदेव नाम शुक्र, जिसका तप के संयोग से पीछे सातातप नाम हुआ था उस शान्त हृदय तपसी ने अगम वचन काल और भृगु से कहे। वह बोला, हे प्रभु! मैं तुम्हारे दर्शन से शान्तिमान् हुआ हूँ। तुम सूर्य और चन्द्रमा इकट्ठे मेरे आश्रम में आये हो और तुम्हारे आने से मेरे मन का मोह नष्ट हो गया जो शास्त्रों और तप से भी निवृत्त होना कठिन है। हे साधो! जैसा सुख महापुरुषों के दर्शन से होता है वैसा किसी ऐश्वर्य और अमृत की वर्षा से भी नहीं होता। तुम ज्ञान के सूर्य और चन्द्रमा हो। हे ऋषीश्वरो! तुमने हमारा स्थान पवित्र किया और मैं शान्तात्मा हुआ। तुम कौन हो जो प्रकाशरूपी, उदार आत्मा मेरे स्थान पर आये हो? जब इस प्रकार जन्मान्तर के पुत्र ने भृगुजी से पूछा तब भृगुजी ने कहा, हे साधो। तू आपको स्मरण कर कि कौन है? भवानी तो नहीं, तू तो प्रबोध आत्मा है। जब इस प्रकार भृगुजी ने कहा तव नेत्र मूँदकर शुक्र ध्यान में लगा और एक मूहूर्त में अपना सब वृत्तान्त देखके नेत्र खोले और विस्मय होकर कहने लगा कि ईश्वर की गति विचित्ररूप है इसके वश होकर मैंने बड़े भ्रम देखे हैं और जगदरूपी चक्र पर आरूढ़ हुआ मैं अनन्तजन्म भ्रमा हूँ। उन सबको स्मरण करके मैं आश्चर्यवान होता हूँ कि मैंने बहुत दुःख और अनेक अवस्थाएँ भोगी हैं। स्वर्ग और मन्दार, कल्पवृक्ष, सुमेरु, कैलाश आदिक वनकुओं में मैं रहा और ऐसा कोई पदार्थ नहीं जो मैंने नहीं पाया, ऐसा कोई