पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४३३

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स्थिति प्रकरण।

रहित है वह निर्बन्ध है, वासनासहित बन्ध है इससे वासनामात्र भेद है। जब तक शरीर है तब तक सुख-दुःख भी होता है परन्तु ज्ञानवान दोनों में शान्तबुद्धि रहता है और अज्ञानी हर्ष शोक से तपायमान होता है। जैसे थम्भे का प्रतिविम्ब जल के हिलने से थम्भ हिलता भासता है परन्तु स्वरूप में स्थित ही है तैसे ही अज्ञान में सुख-दुःख से सुखी-दुःखी भासता है, परन्तु स्वरूप ज्यों का त्यों है। जैसे सूर्य का प्रतिबिम्ब जल के हिलने से हिलता भासता है परन्तु स्वरूप से ज्यों का त्यों है तैसे ही ज्ञानवान इन्द्रियों से सुखी दुखी भासता है पर स्वरूप से ज्यों का त्यों है। अज्ञानी बाहर से क्रिया का त्याग करता है तो भी बन्ध रहता है और ज्ञानवान क्रिया करता है तो भी मोक्षरूप है। अन्तर में जो अनात्मधर्म में बन्धवान है वह बाहर कर्मइन्द्रिय से मुक्त है तो भी बन्धन में है और जो अन्तर से मुक्त है वह कर्मइन्द्रिय से बन्धन भासता है तो भी मुक्तरूप है। जो सब कीड़ा को त्याग बैठा है और हृदय में जगत् की सत्यता रखता है वह चाहे कुछ करे वा न करे तो भी बन्धन में है और जो बाहर चाहे जैसा व्यवहार करता है पर हृदय में अद्वैत ज्ञान है तो वह मुक्तरूप है—उसको कर्म बन्धन नहीं करता। इससे हे रामजी! सब कार्य करो पर अन्तर से शून्य रहकर सर्व एषणा से रहित आत्मपद में स्थित हो जाओ और अपने प्रकृत व्यवहार को करो। यह संसाररूपी समुद्र है जिसमें आदि व्याधि अहं ममतारूपी गढ़ा है जो उसमें गिरता है वह ऊर्ध्व से अधः को जाता है। इससे संसार के भाव में मत स्थित हो और शुद्ध बुद्ध आत्मस्वभाव में स्थित हो। जो ब्रह्म शुद्ध, सर्वात्मा, निर्विकार, निराकार आत्मपद में स्थित हैं उनको नमस्कार है।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे स्थितिपकरणेशुक्रपथमजीवनन्नाम पञ्चदशस्सर्गः॥१५॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! इस प्रकार जब शुक्र ने शरीर का वर्णन किया और विकरालरूप देख के उसमें त्याग बुद्धि की तब काल भगवान शुक्र के वचन को न मान के गम्भीर वाणी से बोले, हे शुक्र! तू इस तपरूपी शरीर को त्यागकर भृगु के पुत्र का जो शरीर है उसको अङ्गीकार कर। जैसे राजा देशदेशान्तर को भ्रमता भ्रमता अपने नगर