पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४३४

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योगवाशिष्ठ।

में आता है तैसे ही तू भी इस शरीर में प्रवेश कर, क्योंकि मार्गवतन से तुझे असुरों का गुरु होना है। यह आदि परमात्मा की नीति है, महा कल्पपर्यन्त तेरी आयु है। जब महाकल्प का अन्त होगा तब मार्गवतन नष्ट होगा और फिर तुझको शरीर का ग्रहण न होगा। जैसे रसं सूखे से पुष्प गिर पड़ता है तैसे ही प्रारब्ध वेग के पूर्ण होने से तेरा शरीर गिर पड़ेगा और शरीर के होते जीवन्मुक्त को प्राप्त हुभा प्राकृत आचार में विचरेगा। इससे इस शरीर को त्यागकर भार्गव शरीर में प्रवेश कर। अब हम जाते हैं, तुम दोनों का कल्याण हो और तुमको वाञ्छित फल मिले। इतना कहकर वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! काल भगवान ऐसे कहकर और दोनों पर पुष्प डालकर अन्तर्धान हो गये। तब वह तपसी नीति को विचारने लगा कि क्या होना है। विचारकर देखा तो विदित हुआ कि जैसे काल भगवान् ने कहा है तैसे ही होना है। ऐसे विचार के महाशरूप जो शरीर था उसमें प्रवेश किया और तपस्वी ब्राह्मण का देह त्याग दिया। तब उस शरीर की शोभा जाती रही और कम्पकम्प के पृथ्वी पर गिर पड़ा। जैसे मूल के काटे से बेलि गिर पड़ती है तैसे हीवह देह गिरा और शुक्रदेह जीवकला संयुक्त हो आया। तब भृगुजी उस कश देह को जीवकला संयुक्त देखके उठ खड़े हुए और हाथ में जल का कमण्डलु ले मन्त्रविद्यासे जो पुष्टिशक्ति है पाठकर पुत्र के शरीर पर जल डाला और उसके पड़ने से शरीर की सब नाड़ियाँ पुष्ट हो गई। जैसे वसन्तऋतु में कमलिनी प्रफुल्लित होती हैं तैसे ही उसका शरीर प्रफुल्लित हो पाया और श्वास माने जाने लगे। तब शुरू पिता के सन्मुख पाया और जैसे मेघ जल से पूर्ण होकर पर्वत के आगे नमता है तैसे ही विधिसंयुक्त नमस्कार करके शिर नवाया और स्नेह से नेत्रों में जल चलने लगा। तब पुत्र को देखके भृगुजी ने उसे कण्ठ लगाया कि यह मेरा पुत्र है। ऐसे स्नेह से पूर्ण हो गया। हे रामजी! जब तक देह है तब तक देह के धर्म फर आते हैं। इसी प्रकार्यात्मकभृगु बानी को भी ममता स्नेह फुर आया तो ओर की क्या बात है? पिता और पुत्र दोनों बैठ गये और एक मुहूर्त पर्यन्त कथा वार्ता करते रहे। फिर उठकर उन्होंने उस तपस्वी शरीर को जलाया,