पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४३५

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स्थिती प्रकरण

क्योंकि बुद्धिमान् शास्राचार में स्थित होते हैं। इसके अनन्तर जिनका वपु तप से प्रकाशता है और जिनकी श्यामकान्ति है ऐसे जीवन्मुक्त उदारात्मा होकर वहाँ रहे और समय पा करके शुक्रजी दैत्यों का गुरु होगा और भृगुजी समाधि में स्थित होंगे। इससे जो सब विकार से रहित जीवन्मुक्त पुरुष जगत्गुरु हैं वह सबके पूजने योग्य हैं।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे स्थितिपकरणे भार्गव जन्मान्तर
वर्णनन्नाम षोडशस्तर्गः॥१६॥

रामजी बोले, हे भगवन्! जैसे भृगु के पुत्र को यह प्रतिभा फुरती गई और सिद्ध होती गई तैसी ही और जीवों को नहीं सिद्ध होती? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! शुक्र का जो ब्रह्मतत्त्व से फुरना हुआ वही भार्गव जन्म हुआ और जन्म से कलङ्कित नहीं हुआ वह सर्व एषणा से रहित शुद्ध चैतन्य था। निर्मल हृदय को जैसी स्फूर्ति होती है तैसे ही सिद्ध हो जाती है और मलिन हृदयवान का संकल्प शीघ्र ही सिद्ध नहीं होता जैसे भृगु के पुत्र को मनोराज हुमा और भ्रमता फिरा तैसे ही सव ही स्वरूप के प्रमाद से भ्रमते हैं। जब तक स्वरूप का साक्षात्कार नहीं होता तब तक शान्ति प्राप्त नहीं होती। यह मैंने भृगु के पुत्र का वृत्तान्त मनोराज की दृढ़ता के लिए तुमको सुनाया है। जैसे बीज ही अंकुर, फल, फल अनेक भाव को प्राप्त होता है तैसे ही सब भूतजात को मन का भ्रमना अनेक भ्रम को प्राप्त करता है। जो कुछ जगत् तुमको भासता है वह सब मन के फुरने का रूप है मिथ्याभ्रम से नानात्व भासता है और कुछ नहीं है एक-एक ऐसा प्रति भ्रम है और सब संकल्पमात्र है, न कुछ उदय होता और न अस्त होता सब मिथ्यारूप मायामात्र है। जैसे स्वप्नपुर और संकल्पनगर भासता हे तैसे ही परस्पर व्यवहार दृष्टि भाते हैं पर कुछ नहीं है तैसे ही वह जाग्रत्भ्रम भी अज्ञान से दृष्टि भाता है। भूत, पिशाच आदिक जितने जीव हैं उनका भी संकल्पमात्र शरीर है, जैसे उनको सुख दुःखों का भोग होता है तैसे ही तुम हमको भी होता है। जैसे यह जगत् है तैसे ही अनन्त जगत् बसते हैं और एक दूसरे को नहीं जानता। जैसे एक स्थान में बहुत पुरुष शयन करते हों