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स्थिति प्रकरण।

मिलता, शुद्ध मिलता है—जैसे शुद्ध धातु मिल जाती है। सुषुप्तिरूप आत्मा से सब फुरते हैं सो तन्मयरूप हैं, जिसको उसमें विश्राम होता है सो ज्ञानदृष्टि से सबसे मिल जाता है। जैसे जल से जल मिल जाता है तैसे ही वह सबसे मिलकर सबको जानता है, अन्य नहीं जानता।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे स्थितिप्रकरणे मनोराजसम्मिलनवर्णनन्नाम
सप्तदशस्सर्गः॥१७॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जो कुछ संसारखण्ड है उन सबका बीज रूप आत्मा है और सब आत्मा का आभास है। आभास के उदयअस्त होने में आत्मसत्ता ज्यों की त्यों है, अपने स्वभाव के त्याग से रहित है, सर्वजीवों का अपना पाप वास्तवरूप है और सुषुप्ति की नाई अफर है। उसी सत्ता में जीव फुरते हैं तब स्वमवत् जगत् भ्रम देखते हैं। जीव जीव प्रति अपनी-अपनी सृष्टि स्थित है, जो पुरुष उलट के आत्मपरायण होता है वह आत्मपद में प्राप्त होता है। जिस पुरुष को आत्मब्रह्म से एकता हुई है उसको परस्पर और की सृष्टि भासती है। अन्तः करण में सृष्टि होती है सो उसका अन्तःकरण मिलता है और उस अन्तःकरण जीवकला के मिले से परस्पर सृष्टि भास आती है सबका अपना भाप सन्मात्र सत्ता है उसमें सब सृष्टि स्थित होती है। जैसे कपूर का पर्वत हो तो उसके अणु-अणु में सुगन्ध होती है और सर्वअणु सुगन्ध पर्वत में एकता होती है तैमे ही सब जीवों का अधिष्ठान आत्मसत्ता है। जैसे सब नदियों के जल का अधिष्ठान समुद्र है तैसे ही सब जीवों का अधिष्ठान आत्मा है। सृष्टि कहीं परस्पर मिलती है और कहीं भिन्न-भिन्न स्थित है। जहाँ चेतनमात्र सत्ता से एकता है वहाँ चित्त की वृत्ति जिसके साथ मिलनी चाहे उसको मिल जाती है पर मलीन चित्तवाला नहीं मिल सकता। एक एक जीव में सहस्रों सृष्टिपरस्पर गुप्त होती हैं। जहाँ जैसा फुरना दृढ़ होता है वहाँ वैसाही भासता है, जहाँ मन काफुरना कोमल होता है सो सफल नहीं होता और जहाँ दृढ़ होता है सो भासने लगता है। हे रामजी। जब देह की भावना मिट जाती है तो प्राण पवन ही स्थित करने से चित्त की वृत्ति स्वभाव में स्थित होती है और तब और के चित्त