पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४३८

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योगवाशिष्ठ।

की चेष्टा अपने चित्त में फुर आती है और जब तक चित्त मलीन होता है और देह की भावना को नहीं त्यागता तब तक किसी पदार्थ से एकता नहीं होती। जिसका चित्त निर्मल होता है उसको जैसे और के चित्त का ज्ञान हो आता है तैसे ही और सृष्टि में मिलने की भी शक्ति होती है, अशुद्ध को नहीं होती। सर्व जीवों की तीन अवस्था होती है—जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति यह तीनों ही अवस्था आत्मा में जीवित का लक्षण है। जैसे मृगतृष्णा की नदी के तरङ्ग सूर्य की किरणों में हैं वास्तव में उनका प्रभाव है तैसे ही जीव को आत्मा में प्रमाद है उससे तीनों अवस्थाओं में भटकता है। जब चित्तकला तुरीया में स्थित होती है तबसे जीवन्मुक्त होता है। आत्मसत्ता स्वभाव में स्थित हुए से आत्मा से एकता को प्राप्त होता है और सब जीव से सुहृद्भाव होता है। जब अज्ञानी पुरुष सुषुप्तिरूप आत्मसत्ता से जागता है अर्थात् संसारको चितवता है तब संसार को प्राप्त होता है वह संसार में और संसार उसमें, इस प्रकार प्रमाद करके अनेक सृष्टि देखता है। जैसे केले के थम्भ से पत्र का समूह निकल आता है तैसे ही वह सृष्टि से सृष्टि को देखता है, शान्ति नहीं पाता और जब उलटके अपने स्वभाव में स्थित होता है तब नानात्वभाव मिट जाता है और शान्तरूप होता है—जैसे केले के भीतर शीतल होता है। हे रामजी! जगत् के समूह भासते हैं तो भी आत्मा में बैन नहीं जैसे केले के भीतर पत्रों से भिन्न कुछ नहीं निकलता तैसे ही आत्मा से जगत् भिन्न नहीं। जैसे बीज ही फूलभाव को प्राप्त होता है और फूल से फिर बीज होता है तैसे ही ब्रह्म से मन होता है और बुद्धि से ब्रह्म होता है। जीव का कारण रस है, आत्मा के कारण-कार्यभाव कुछ नहीं बनता, वह तो अद्वैत अचिन्त्यरूप है। आदि परमात्मा अकारणरूप है, वही विचारने योग्य है भोर से क्या प्रयोजन है? वीज जब अपने भाव को त्यागता है तब फूलभाव को प्राप्त होता है ब्रह्मसत्ता अपने स्वभाव को कदाचित् नहीं त्यागती। बीज परिणाम से आकाररूप होता है आत्मा अकृत्रिम निराकार और अच्युतरूप है, इस कारण आत्मा बीज की नाई भी नहीं कहा जा सकता। आकाश से आकाश नहीं उपजता और अभिन्नरूप है, न कोई