पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४३९

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स्थिति प्रकरण।

उपजा है, न किसी को उपजाया है, केवल ब्रह्म आकाश अपने आप में स्थित है। जब द्रष्टा पुरुष को देखता है तब आपको नहीं देख सकता, क्योंकि जब मनोराज का परिणाम जगत् में जाता है तब विद्यमान वस्तु की संभाल नहीं रहती। देहादिक में प्रात्म-अभिमान होता है। जो पुरुष आत्मसत्ता को देखता है उसको जगत्भाव नहीं रहता और जो जगत् को देखता है उसको आत्मसत्ता नहीं भासती। जैसे जो मृगतृष्णा की नदी को झूठ जानता है उसको जल भाव नहीं रहता और जो जल जानता है उसको प्रस्तबुद्धि नहीं होती। आकाश की नाई पूर्ण पुरुष द्रष्टा है वह जब इस दृश्य की ओर जाता है तब आप को नहीं देख सकता। आकाश की नाई ब्रह्मसत्ता सब ठौर पूर्ण है सो अज्ञानी को नहीं भासती, उसे जो दृश्य का अत्यन्ताभाव है वही भासता है, अनुभव का भासना दूर हो गया है। हे रामजी! स्थूलपदार्थ के आगे पटल आता है तब वह नहीं भासता तो जो सूक्ष्म निराकार द्रष्टा पुरुष है उसके आगे आवरण आवे तब वह कैसे भासे? जो दृष्टा पुरुष है वह अपने ही भाव में स्थित है दृश्यभाव को नहीं प्राप्त होता, दृश्य भासता है तब द्रष्टा नहीं दीखता और दृश्य कुछ वस्तु है नहीं। इससे द्रष्टा एक परमात्मा ही अपने आप में स्थित है, जो आत्मरूप सर्वशक्तिमान् देव है। जैसा फुरना उसमें होता है वैसा ही शीघ्र भास आता है। जैसे वसन्त ऋतु में एक रस अनेक रूपों को धारता है और उससे टास, फल फल होते हैं तैसे ही एक आत्मसत्ता अनेक जीव देह होके भासती है। जैसे अपने ही भीतर अनेक स्वप्नभ्रम देखता है तैसे ही अहंभादिक जगत् दृश्य भ्रम का अनुभव ही प्राप्त होता है और स्वरूप से और कुछ नहीं हुआ। जैसे एक बीज के भीतर पत्र, टास, फल, फल अनेक होते हैं और उसमें और बीज होता है, बीज के भीतर और वृक्ष और उसके भीतर और बीज होता है इसी प्रकार एक बीज के भीतर अनेक वृक्ष होते हैं, तैसे ही एक आत्मा में और अनेक चिद्अणु फुरते हैं, उनके भीतर सृष्टि होती है और फिर उन सृष्टियों के भीतर चिद्अणु, फिर चिद्अणु के भी सृष्टि, इसी प्रकार अनेक सृष्टिरूप ब्रह्माण्ड हैं उनकी संख्या कुछ कही नहीं जाती वे सब