पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४४०

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योगवाशिष्ठ।

अपने आप से फुरते हैं और आप ही स्वाद लेता है। जैसे तिल में तेल है तेसे ही चिद्अणु में आकाश, पवन आदिक अनेक सृष्टि स्थित है। आकाश में पवन, अग्नि में जल, सर्वभूतों में पृथ्वी सृष्टि स्थित हैं। ऐसा कोई पदार्थ नहीं जो चित्त से सत्तारहित हो, जहाँ चित्त है वहाँ उसका आभासरूप द्रष्टा भी स्थित है। जैसे डब्बे में लौंग होते हैं तो उनके नष्ट होने से डब्बा नष्ट नहीं होता। जैसा जैसा उसमें फुरना होता है तैसा ही तैसा स्थित होता है। सबका अधिष्ठानरूप आत्मा है, जैसे कमल को पूर्ण करनेवाला जल है उससे सब स्फूर्ति होते और प्रकाशते हैं तैसे ही सब सृष्टि को सत्ता देनेवाला और आश्रयरूप आत्मतत्त्व है। यह जगत् दीर्घ-स्वरूप अपने अनुभव से उदय हुआ है सो बाह्यरूप होकर भासता है, उस स्वप्न से और स्वप्नान्तर होता है उसके आगे और स्वप्ना होता है, इसी प्रकार सृष्टि की स्थिति हुई है। जैसे एक बीज से अनेक वृक्ष होते हैं तैसे ही एक चिद्अणु में अनेक सृष्टि स्थित हैं। जैसे जल में अनेक तरंग भासते हैं तेसे ही आत्मअनुभव में अनेक जगत् भासते हैं और अभिन्नरूप हैं। इससे द्वैतभ्रम को तुम त्याग दोष, न कोई देश है न काल-क्रिया है, केवल एक अद्वैत आत्मसत्ता अपने आप में स्थित है। जैसे आकाश में आकाश स्थित है तैसे ही आत्मसत्ता अपने आप में स्थित है। ब्रह्मा से कीट पर्यन्त जो जगत् भासता है सो एक परमात्मा ही अपने आप में किंचनरूप होता है। जैसे एक रससत्ता ही कहीं फल और सुगन्ध सहित भासती है और कहीं काष्ठरूप को प्राप्त होती है तैसे ही एक परमात्मसत्ता कहीं चैतन्य और कहीं जड़रूप होकर दिखाई देती है। जो सर्वगत अविनाशी आत्मा है वही सबका बीजरूप है और उसी के भीतर सब जगत् स्थित है। पर जिसको आत्मा का प्रमाद है, उसको नानारूप भासता है। जैसे कोई जल में डूबे और फिर निकले, फिर डूबे, फिर निकले और जैसे स्वप्न में और स्वप् होता है, तैसे ही प्रमाद दोष से भ्रम से भ्रमान्तर नाना प्रकार के जगत् जीव देखता है। जगत् और आत्मा में कुछ भेद नहीं है, क्योंकि जगत् कुछ है नहीं, आत्मा हो जगत सा हो भासता है। जैसे विचार रहित को सुवर्ण में भूषण बुद्धि