पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४४१

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स्थिति प्रकरण।

होती है और विचार किये से भूषणबुद्धि नष्ट हो जाती है, सुवर्ण ही भासता है, तैसे ही जो विचार से रहित है उसको यह जगत् पदार्थ भासते हैं कि यह मैं हूँ यह जगत् है यह उपजा है और यह लीन होता है, और जिसको सत्सङ्ग और शास्त्र के संयोग से विचार उपजा है उसको दिन प्रतिदिन भोग की तृष्णा घटती जाती है और आत्मविचार दृढ़ होता जाता है। जैसे किसी को ताप आता हो तो औषध करके निवृत्त हो जाती है, दूसरे शरीर से तपन निवृत्त हो जाती है और शीतलता प्रकट होती है तैसे ही ज्यों ज्यों विवेक दृढ़ होता है त्यों त्यों इन्द्रियों को जीतता है सन्तोष से हृदय शीतल होता है और सर्व आत्मा ही भासता है। यह विवेक का फल है। हे रामजी! जैसे अग्नि के लिखे चित्र से कुछ कार्य नहीं सिद्ध होता तैसे ही निश्चय से रहित वचन का विवेक दुःख की निवृत्त नहीं करते और शान्ति प्राप्त नहीं होती। जैसे जब पवन चलता है तब पत्र और वृक्ष हिलते हैं और उसका लक्षण भासता है पर वाणी से कहिये तो नहीं हिलते तैसे ही जब विवेक हृदय में आता है तब भोग की तृष्णा घट जाती है, मुख के कहने से तृष्णा घटती नहीं। जैसे अमृत का लिखा चित्र पान करने से अमर होने का कार्य नहीं करता, चित्र की लिखी अग्नि शीत नहीं निवृत्त करती और स्त्री के चित्र के स्पर्श से सन्तान उपजने का कार्य नहीं होता तैसे ही मुख का विवेक वाणीविलास है और भोग की तृष्णा को निवृत्त करके शान्ति को नहीं प्राप्त करता। जैसे चित्र देखने ही मात्र होता है तैसे ही वह विवेक वाणीविलास है। हे रामजी! प्रथम जब विवेक आता है तब राग-देष को नाश करता है और ब्रह्मलोक पर्यन्त जो कुछ विषय भोगरूप है उनसे तृष्णा और वैरभाव को नष्ट करता है। जैसे सूर्य के उदय होने से अन्धकार नष्ट होता है तैसे ही विवेक उदय होने से ज्ञान नष्ट हो जाता है और पावन पद की प्राप्ति होती है।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे स्थितिप्रकरणे जीवपदवर्णनन्नामअष्टादशस्सर्गः॥१८॥