पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४४३

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स्थिति प्रकरण।

उसके भीतर जगत् भ्रम भासने लगता है, वह स्वप्ना कहाता है। अब सुषुप्ति का क्रम सुनो। मन, वाणी और शरीर से जहाँ कोई क्षोभ नहीं और स्वच्छवृत्ति जीवधातु भीतर स्थित है, हृदयकाोश में प्राणवायु से क्षोभ नहीं होता और नाड़ी रस से पूर्ण होती है उस मार्ग से प्राण आने जाने से रहित होते हैं और क्षोभ से रहित सम वायु चलता है उसका नाम सुषुप्ति है। जैसे वायु से रहित एकान्त गृह में दीपक उज्ज्वल प्रकाशता है तैसे ही वहाँ संवित्सत्ता अपने आपका अनुभव लेती है। जैसे तिलों में तेल स्थित होता है तैसे ही जीव संवित् कलना से जो कल्पता है सो उस काल में अपने आप में स्थित होता है। जैसे बरफ में शीतलता और घृत में चिकनाई होती है तैसे ही वहाँ संवित्सत्ता स्थित होती है, उसका नाम सुषुप्ति अवस्था है। जड़रूप उस सुषुप्ति अवस्था से जागकर दृश्यभाव को न प्राप्त हो और निर्विकल्प प्रकाश में स्थित हो सो ज्ञानरूप तुरीय है। तब यह व्यवहार करे तो भी जीवन्मुक्त है, वह जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति में धनवान नहीं होता। हे रामजी! आत्मसत्ता से फुरना होकर स्वरूप विस्मरण हो जाता है और फुरना दृढ़ होकर स्थित होता है इसी का नाम जाग्रत् है। स्वरूप से प्रमाद दोष करके फुरे और जो जगत् भासे उसको सवरूप जाने और यह प्रतीत थोड़े काल रहकर फिर निवृत्त हो जावे इसका नाम स्वप्न है। दृश्य के फुरने का अभाव हो जावे और अज्ञानवृत्ति जड़तारूप रहे उसका नाम सुषुप्ति है। अनुभव में ज्ञान स्थित रहे और जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति का व्यवहार हो, पर निश्चय में इनका सद्भाव रञ्चक भी न हो, केवल ज्ञान में अहंप्रतीति हो और वृत्ति उससे चलायमान न हो उसका नाम तुरीया पद है उसमें स्थित हुआ जीवन्मुक्त होता है। जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति अवस्थाओं में जीव स्थित होते हैं। जब नाड़ी अन्न के रस से पूर्ण हो जाती है और प्राणवायु हृदय नाम्नी नाड़ी में नहीं आता तब चित्तसंवित् अक्षोभरूप सुषुप्ति होता है। जब अन्न उस नाड़ी से पचता है और प्राणवायु चलने लगता है तब चित्तसंवित् क्षोभरूप फुरने लगता है और उस फुरने से अपने भीतर हो बड़े जगत् भ्रम देखता है, जैसे