पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४४४

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योगवाशिष्ठ।

बीज से वृक्ष होता है जब वायु का रस नाड़ी में बहुत होता है तब चित्त सत्ता आकाश में उड़ना, वायु, अँधेरी आदिक पदार्थों को देखता है, जब कफ का रस नाड़ी में अधिक होता है तब फूल, बेल, बावलियाँ, जल, मेघ, बगीचे आदिक पदार्थ भासते हैं और जब चित्त की अधिकता होती है तब उष्णरूप अग्नि, रक्त, वस्त्र आदिक भासने लगते हैं। इस प्रकार वासना के अनुसार जगभ्रम देखता है और जैसी भावना दृढ़ होती है तैसा ही पदार्थ दृढ़ हो भासता है जब पवन शोभायमान होता है तब चित्तसंवित् नेत्र आदिक द्वार के बाहर निकलकर रूपादिक का अनुभव करता है। चिरपर्यन्त सत् जानने का नाम जाग्रत् है। वासना के अनुसार मनरूपी शरीर से जीव नेत्र, जिह्वादिक बिना जो रूप रसादिक का अनुभव होता है उसका नाम स्वप्न है पर स्वरूप से न कोई स्वप्ना है, न जाग्रत् है और न सुषुप्ति है, केवल सत्ता अपने आप में स्थित है, उसी के फुरने का नाम जाग्रत स्वप्न और सुषुप्ति है। चिरकाल फुरने का नाम जाग्रत है और अल्पकाल फुरने का नाम स्वप्ना है सो केवल प्रतीति का भेद है। वास्तव में कुछ भेद नहीं और जो वास्तव में भेद न हुआ तो जगत् स्वप्नरूप हुआ। इससे यही भावना दृढ़ करो कि जगत् असत् रूप स्वप्नवत् है इसमें सत्भावना करनी दुःख का कारण है।

इति श्रीयोगवाशिष्ठेस्थितिप्रकरणे जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तितुरीयारूप-
वर्णनन्नामकोनविंशतितमस्सर्गः॥१९॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! यह मैंने तुमको मन का रूप निरूपण करके दिखाया है और अवस्थाओं का निरूपण भी इसी निमित्त किया है, और प्रयोजन कुछ नहीं। इससे जैसा निश्चय चित्त में होता है तैसा ही हो भासता है। जैसे अग्नि में लोहा डालिये तो अग्निरूप हो जाता है तैसे ही मन जिस पदार्थ से लगता है उसी का रूप हो जाता है। भाव, अभाव, ग्रहण, त्याग, सब मन ही से होते हैं, न कोई सत् है न असत् हैं। केवल मनकी चपलता से सब फुरते हैं। मन के मोह से ही जगत्भा सता है और मन के नष्ट होने से नष्ट हो जाता है। जो मलीन मन है सो अपने फुरने से जगत् रचता है। यह मन ही पुरुष है इसको तुम