पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४४५

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स्थिति प्रकरण।

अशुभमार्ग में न लगाना। जब मन को जीतोगे तब सब जगत् में तुम्हारी जय होगी। मन के जीते से सब जगत् जीता जाता है और तब बड़ी विभूति प्राप्त होती है। जो शरीर का नाम पुरुष होता तो शुक्र का शरीर पड़ा था, वह दूसरा शरीर न रचता पर उसका शरीर तो वहाँ पड़ा रहा और मन अन्य शरीर को रचता फिरा, इससे शरीर का नाम पुरुष नहीं मन ही का नाम पुरुष है। शरीर चित्त का किया होता है, शरीर का किया चित्त नहीं होता। जिस ओर चित्त जा लगता है उसी पदार्थ की प्राप्ति होती है, इसमें संशय नहीं। इससे यह अतितुच्छ पद है। आत्मसत्ता का चित्त में सदा अभ्यास करो और भ्रम को त्याग दो। जब मन दृश्य की ओर संसरता है तब अनेक जन्म के दुःखों को प्राप्त होता है और जब आत्मा की ओर इसका प्रवाह होता है तब परमपद को प्राप्त होता है। इससे दृश्यभ्रम को त्याग के आत्मपद में स्थित करो।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे स्थितिप्रकरणे भार्गवोपाख्यानसमाप्तिवर्णनन्नाम विंशतितमस्सर्गः॥२०॥

रामजी ने पूछा, हे भगवन्! सर्वधमों के वेत्ता! जैसे समुद्र में तरङ्ग उपज के फैल जाता है तैसे ही मेरे हृदय में एक बड़ा संशय उत्पन्न होकर फैल गया है कि देश, काल और वस्तु के परिच्छेद से रहित नित्य, निर्मल, विस्तृत और निरामय आत्मसत्ता में मलीन संवित् मन नामक कहाँ से आया और कैसे स्थित हुआ? जिससे भिन्न कुछ वस्तु नहीं है और न आगे होगी उसमें कलङ्कता कहाँ से आई? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! तुमने भला प्रश्न किया। अब तुम्हारी बुद्धि मोक्षभागी हुई है जैसे नन्दनवन के कल्पवृक्ष में कल्पमञ्जरी लगती है तैसे ही तुम्हारी बुद्धि पूर्व अपर के विचार से जारी है। अब तुम उस पद को प्राप्त होगे जिस पद को शुक्र आदिक प्राप्त हुए हैं। तुम्हारे इस प्रश्न का उत्तर में सिद्धान्तकाल में दूँगा और उस काल में तुमको आत्मपद हस्तामलकवत् भासेगा। हे रामजी! सिद्धान्त का प्रश्नोत्तर सिद्धान्तकाल में सोहता है और जिज्ञासु का प्रश्नोत्तर जिज्ञासुकाल में सोहता है। जैसे वर्षाकाल में मोर की वाणी शोभती है और शरदकाल में हंस की वाणी शोभती है और जैसे वर्षा