पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४४८

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योगवाशिष्ठ।

और अविद्यारूप है। इसकी भावना भय का कारण है। सब जगत् के साथ संवित् की तन्मयता होती है तब उसका नाम कर्म बुद्धीश्वर कहते हैं। जब द्रष्टा को दृश्य से संयोग होता है तब बड़े मोह को प्राप्त होता है, दृश्य से मिल के भ्रम अनात्म में आत्माभिमान करता है और देहादिक को अपना आप जानता है। संसाररूप मद से जीव उन्मत्त हो जाता है और स्वरूप की सँभाल इसको नहीं रहती—इसी का नाम अविद्या बुद्धीश्वर कहते हैं। जो दृश्य से मिला है उसका कल्याण नहीं होता और जिसके आगे मन का पटल है उसको स्वरूप का भान नहीं होता। जैसे सूर्य के आगे जब मेघ का आवरण आता है तब वह नहीं भासता तैसे ही मन के आवरण से आत्मा नहीं भासता। इससे मनरूपी आवरण को दूर करो। मन का रूप फुरना है, उसको संकल्प कहते हैं। जो-जो संकल्प फुरें उनको त्याग करो, असंकल्प होने से मन नष्ट हो जावेगा। हे रामजी! जब तुम सर्वभाव और सर्व पदार्थों में असङ्ग होगे तब द्रष्टा पुरुष प्रसन्न होगा और उससे तुमको निर्विकल्प चिदात्मा की प्राप्ति होगी जहाँ न जगत् की सत्ता है, न सुख है और न दुःख है केवल अद्वैत भाव है जो अपने आप में प्रकाशता है। जब संसार की भावना तुम्हारे हृदय से उठ जावेगी तब तुम निर्मल स्वरूप में स्थित होगे और तब दृश्यभ्रम निवृत्त हो जावेगा। जैसे रस्सी के सम्यक् ज्ञान से सर्पभ्रम नष्ट हो जाता है तैसे ही चिदात्मा के सम्यक्ज्ञान से जगभ्रम नष्ट हो जावेगा। इससे तुम दृश्यभावना को त्याग के चिदात्मा की भावना करो, जैसी भावना होती है तैसे ही भासता है। यदि प्रथम भावना को त्याग के और भावना करता है तो प्रथम का अभाव हो जाता है। जैसे दिन हुए से रात्रि का अभाव हो जाता है तैसे ही आत्मभावना से दृश्यभावना का अभाव हो जाता है। जैसे लोहे को लोहा काटता है तैसे ही भावना को भावना काटती है। इससे अतुच्छ निरुपाधि और निःसंशय पद का आश्रय करो। जब उसकी भावना दृढ़ होगी तब तुम भ्रम से रहित सिद्धपद को प्राप्त होंगे। हे रामजी! तुम्हारा आत्मस्वरूप है, तुम बुद्धि आदिक की कल्पना मत