पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४४९

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स्थिति प्रकरण।

करो। जैसे बालक से कहिये कि शून्य में सिंह है तो वह भयवान् होता है तैसे ही जब शून्य शरीरादिकों में विचार से बुद्धि नहीं आती और 'यह मैं हूँ' 'यह और है' इत्यादिक जो कल्पना होती हैं सो ऐसी हैं जैसे बालक को अपनी परछाहीं में वैताल कल्पना होती है। जो कि अपनी कल्पना के वश से भाव, आभाव, शुभ, अशुभ क्षण क्षण में प्राप्त होते हैं और कोई सत् रूप, कोई असत् रूप भासते हैं। जैसी जैसी भावना होती है तैसा ही तैसा भासता है, पर स्त्री में जब कामबुद्धि होती है तब स्पर्श से स्त्रीवत् आनन्ददायक होती है और जो उसी स्त्री में माता की भावना करता है तो उससे कामबुद्धि जाती रहती है। इससे देखो जैसी जैसी भावना होती है तैसा ही तैसा हो भासता है। भावना के अनुसार फल होता है और तत्काल उसी आकार को देखता है ऐसा पदार्थ कोई नहीं जो सत् नहीं और ऐसा कोई नहीं जो असत् नहीं। जैसा जैसा किसी ने निर्णय किया है तैसा ही तैसा उसको भासता है। इससे इस संसार की भावना को त्याग के स्वरूप में स्थित हो। हे रामजी! मणि में जो प्रतिबिम्ब पड़ता है उसको मणि दूर नहीं कर सकती पर तुम तो मणिवत् जड़ नहीं हो, तुम चैतन्यरूप आत्मा हो, तुम्हारे में जो दृश्य का प्रतिबिम्ब पड़ता है तुम उसको त्याग करो। जो संकल्प दृश्य का उठे उसको असत् रूप जानके त्याग दो और प्रकृत व्यवहार जो प्राप्त हों उनको करो और मणि की नाई भीतर से रञ्जित से रहित हो रहो। जैसे माणि में प्रतिबिम्ब वहिदृष्टि आता है और भीतर रङ्ग नहीं चढ़ता तैसे ही वहिदृष्टि व्यवहार तुम्हारे में भासे, पर हृदय में राग-द्वेष स्पर्श न करे।

इति श्रीयोगवाशिष्ठेस्थितिप्र॰ विज्ञानवादोनामैकविंशतितमस्सर्गः॥२९॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जब जीव को सन्तों के संग और सत्-शास्त्रों के विचार से विचार उपजता है तब दूसरी ओर से वृत्ति निवृत्त होती है और संसार का मनन भी निवृत्त हो जाता है तब विवेकरूपी बुद्धि उदय होती है और संसार (दृश्य) में त्याग बुद्धि होती है। तथा द्रष्टा आत्मा में अङ्गीकार बुद्धि होता है। द्रष्टा पुरुष प्रकट होता है और दृश्य अदृश्यता को प्राप्त होता है अर्थात् द्रष्टा के लक्ष्य से दृश्य को असत् रूप जानता