पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४५

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वैराग्य प्रकरण।

ही यह देह न जड़ है न चैतन्य है। जड़ इस कारण नहीं है कि इससे कार्य भी होता है और चैतन्य इस कारण नहीं कि इसको आपसे कुछ ज्ञान नहीं होता। इसलिये मध्यम भाव में है, क्योंकि चैतन्य आत्मा इसमें व्याप रहा है, पर आपतो अपवित्ररूप अस्थि, मांस, रुधिर, मूत्र भोर विष्ठा से पूर्ण और विकारवान् है। ऐसी देह दुःख का स्थान है। इष्ट के पाने से हर्षवान् और अनिष्ट के पाने से शोकवान होती है, इससे ऐसे शरीर की मुझको इच्छा नहीं। यह अज्ञान से उपजती है। हे मुनीश्वर! ऐसे अमङ्गलरूपी शरीर में ही अहंपन फुरता हे सो दुःख का कारण है। यह संसार में स्थित होकर नाना प्रकार के शब्द करता है। जैसे कोठरी में बैठा हुआ बिलाव नाना प्रकार के शब्द करता है वैसे ही अहंकाररूपी विलाव देह में बैठा हुआ अहं अहं करता है चुप कदाचित् नहीं रहता। हे मुनीश्वर! जो किसी के निमित्त शब्द हो वही सुन्दर है अन्यथा सब शब्द व्यर्थ हैं। जैसे जय के निमित्त ढोल का शब्द सुन्दर होता है वैसे ही अहंकार से रहित जो पद है वही शोभनीय है और सब व्यर्थ हैं। शरीररूपी नौका भोगरूपी रेत में पड़ी है, इसलिये इसका पार होना कठिन है। जब वैराग्यरूपी जल बढ़े और प्रवाह हो और अभ्यासरूपी पतवार का बल लगे तब संसार के पाररूपी किनारे पर पहुँचे। शरीररूपी बेड़ा है जो संसाररूपी समुद्र और तृष्णारूपी जल में पड़ा है जिसका बड़ा प्रवाह है भोर भोगरूपी उसमें मगर हैं सो शरीररूपी बेड़े को पार नहीं लगने देते। जव शरीररूपी बेड़े को वैराग्यरूपी वायु और अभ्यासरूपी पतवार का बल लगे तब शरीररूपी बेड़ा पार हो। हे मुनीश्वर! जिस पुरुषने उपाय करके ऐसे बेड़े को संसार समुद्र से पार किया है वही सुखी हुआ है और जिसने नहीं किया वह परम आपदा को प्राप्त होता है वह उस बेड़े से उलटा डूबेगा क्योंकि उस शरीररूपी बेड़े का तृष्णारूपी छिद्र है। उससे संसार समुद्र में डूब जाता है और भोगरूपी मगर इसको खा लेता है। यही आश्चर्य है कि देह अपनाभाप नहीं और मनुष्य मूर्खता करके आपको देह मानता है और तृष्णारूपी विद करके दुःख पाता है। शरीररूपी वृक्ष है उसमें भुजारूपी शाखा, उँगली पत्र, जंघा स्तम्भ, मांसरूपी अन्दर