पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४५०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४४४
योगवाशिष्ठ।

है। जब यह पुरुष ज्ञात ज्ञेय होता है तब परमतत्त्व में जागता है और संसार की ओर से घन सुषुप्ति, मृतक की नाई हो जाता है और संसार की ओर से वैराग्य, भोग में अभोग भोर रस में निरसबुद्धि उपजती है। जब ऐसी बुद्धि होती है तब मन अपनी सत्ता को त्यागकर आत्मरूप होता है। जैसे बरफ का पुतला सूर्य के तेज से जलरूप हो जाता है तेसे ही जब मन में संसार की सत्यता होती है तब उस फुरने से जड़ हो जाता है जब विवेकरूपी सुर्य उदय होता है तब मन गलके आत्म-रूप हो जाता है जैसे जब तक मरुस्थल में धूप होती है तब तक वहाँ से मृगतृष्णा की नदी नष्ट नहीं होती और जब वर्षा होती है तब नष्ट हो जाती है तैसे ही जब तक संसार की सत्यता होती तब तक मन नष्ट नहीं होता और जब ज्ञान की वर्षा होती है तब दृश्यसहित मन नष्ट हो जाता है। हे रामजी! संसाररूपी वासना के जाल में जीवरूपी पक्षी फँसे हैं, जब वैराग्यरूपी चुहा इसको कतरे तब जीव निर्बन्ध हो। जैसे मलीन जल निर्मल होता है तेसे ही वैराग्य के वश से जीव का स्वभाव निर्मल हो जाता है। जब जीव निराग निरुपाधि के संग और राग, द्वैष और मोह से रहित होता है तब जैसे पिंजरे के टूटे पक्षी निर्बन्ध होता है तैसे ही जीव निर्बन्ध हो जाता है, सन्देह दुर्मति शान्त हो जाती है। जगत् भ्रम नष्ट हो जाता है और हृदय पूर्ण हो जाता है। जैसे पूर्णमासी का चन्द्रमा शोभता है तैसे ही ज्ञानवान शोभता है, सबसे उत्तम सौन्दर्यता को प्राप्त होता है और उसका उदय अस्त राग-द्वेष नष्ट हो जाता है, सर्व समताभाव वर्त्तता है और न्यूनता और विशेषताभाव नष्ट हो जाता है। जैसे पवन से रहित सोमसमुद्र अचल होता है तैसे ही प्रसङ्ग पुरुषमूक जड़ अन्धकर्म की वासना से रहित अचल हो जाता है और वह सब चेतन प्रकाश देखता है, उसकी बुद्धि विवेक से प्रफुल्लित हो जाती है। जैसे सूर्य के उदय हुए सूर्यमुखी कमल प्रफुल्लित हो आते हैं तैसे ही वह पुरुष पूर्णिमा के चन्द्रमावत् दैवी गुणों से शोभता है। बहुत कहने से क्या है ज्ञात ज्ञेय पुरुष आकाशवत् हो जाता है, वह न उदय होता है और न अस्त होता है। विचार करके जिसने आत्म-