पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४५१

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स्थिति प्रकरण।

तत्त्व को जाना है वह उस पद को प्राप्त होता है जहाँ ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र स्थित हैं और सब ही उस पर प्रसन्न होते हैं। प्रकट आकार उसका भासता है पर हृदय अहङ्कार से रहित है और विकल्प के समूह उसको नहीं खींच सकते—जैसे जल के अभाव जाननेवाले को मृगतृष्णा की नदी नहीं खींच सकती। हे रामजी! आविर्भाव और तिरोभावरूप जो संसार है उसको रमणीयरूप जान के ज्ञानवान् खेद नहीं पाता, देह के नाश में वह अपना नाश नहीं मानता और उपजने में उपजना नहीं मानता। जैसे घट उपजे से आकाश नहीं उपजता, क्योंकि आगे सिद्ध है और घट के प्रभाव से आकाश का अभाव नहीं होता, तैसे ही देह के उपजे से आत्मा नहीं उपजता और देह के नष्ट हुए नष्ट नहीं होता। जब ऐसा विवेक उदय होता है तब वासना-जाल नष्ट हो जाता है और कोई भ्रम नहीं रहता। जैसे मृगतृष्णा की नदी का ज्ञान से अभाव हो जाता है। जब तक जीव को यह विचार नहीं उपजता कि मैं कौन हूँ और जगत् क्या है, तब तक संसाररूपी अन्धकार रहता है। जो पुरुष ऐसे जानता है कि संसारभ्रम मिथ्या उदय हुआ है और परम आपदा का कारण देह अनात्मरूप है, आत्मा से यह जगत् भिन्न नहीं और सब आत्मसत्ता करके स्थित है वही पदार्थ देखता है। सब चैतन्यसत्ता है, मैं अनन्त चिदाकाशरूप हूँ और देश, काल, वस्तु के परिछेद से रहित हूँ और आधि, व्याधि, भय, उद्वैग, जरा-मरण, जन्म भादिक संयुक्त मैं नहीं, ऐसे जो देखता है, वही पदार्थ देखता है। बाल के अग्र का लक्षभाग करिये और फिर एक भाग के कोर्टभाग करिये ऐसा सूक्ष्म सर्वव्यापी है, ऐसे जो देखता है, वही यथार्थ देखता है। मैं सर्वशक्तिमान् अनन्त आत्मा हूँ, सर्वपदार्थों में स्थित मौर अद्धैत चिदादित्य हूँ, ऐसे जो देखता है वही यथार्थ देखता है। अधः ऊर्ध्व मध्य और सब में मैं व्यापा हूँ, मुझसे भिन्न द्वैत कुछ नहीं, ऐसे जो देखता है वही यथार्थ देखता है जैसे तागे में माला के दाने पिरोये होते हैं तैसे ही सब मुझमें पिरोये हैं, ऐसे जो देखता है वही यथार्थ देखता है। न मैं हूँ न यह जगत् है, केवल ब्रह्मसत्ता स्थित है, सत् असत् के मध्य में जो एक देव प्रकाशक है और