पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४५३

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स्थिति प्रकरण।

से त्रिलोकी का प्रकाश होता है, हाथ गली हैं, जिनसे लेता देता है, मुख बड़ी कन्दरा है, ग्रीवा और शीश बड़े मन्दिर हैं और रेखा माला हैं जो भिन्न भिन्न लगी हुई हैं, नाड़ी विभाग करने के स्थान हैं और प्राणवायु आदिक से नाड़ी में जीव विचरते हैं, चिन्तामणिरूपी आत्मा में श्रेष्ठ बुद्धिरूपी स्त्री रहती है जिसने इन्द्रियरूपी वानर बाँध रक्खे हैं, और जिसके हास्य में महासुन्दर फूल हैं। ऐसा शरीररूपी पुर ज्ञानवान् को महासुख का निमित्त है और सौभाग्य सुन्दररूप है। उस शरीर के सुख दुःख से ज्ञानवान् सुखी दुःखी नहीं होता। हे रामजी! जो अज्ञानी हैं उनको शरीररूपी नगर अनन्त दुःख का भण्डार है, क्योंकि अज्ञान से व शरीर के नष्ट हुए आपको नष्ट हुआ मानते हैं और ज्ञानवान् इसके नाश हुए अपना नाश नहीं मानते। वे जब तक रहते हैं तब तक शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध इनको ग्रहण करते हैं, वे इष्टरूप होके भासते हैं और शरीररूपी नगर में भ्रम से रहित निष्कणटक राज्य करते हैं। वे लोभ से रहित हैं, इस कारण शत्रु नहीं लेते और उनको अपने स्थान में आने नहीं देते। वे शत्रु काम, क्रोध, मान, मोहादिक अज्ञान रूप हैं, उनमें वे आप प्रवेश नहीं करते और अपने देश में उनको आने नहीं देते, सावधान ही रहते हैं। उनके देश, उदारता, धीरज, सन्तोष, वैराग्य समता, मित्रता, मुदिता और उपेक्षा है, उनमें अज्ञान नहीं प्रवेश करने पाता और आप ध्यानरूपी नगर में रहता है, सत्यता और एकता दोनों स्त्रियों को साथ रखता है और उनसे सदा शोभायमान रहता है। जैसे चन्द्रमा चित्रा और विशाखा दोनों स्त्रियों से शोभता है तैसे ही ज्ञानवान् सत्यता और एकता से शोभता है। वह मनरूपी घोड़े पर आरूढ़ होके और विचाररूपी लगाम उसके लगाकर जीव ब्रह्म की एकतारूपी सङ्गम तीर्थ में स्नान करने जाता है जिससे सदा आनन्दवान रहता है और भोग और मोक्ष दोनों से सम्पन्न होता है। जैसे इन्द्र अपने पुर में शोभता है तैसे ही ज्ञानवान देह में शोभता है और जैसे घट के फूटे से आकाश की कुछ न्यूनता नहीं होती तेसे ही देश के नाश हुए ज्ञानी की कुछ हानि नहीं होती वह ज्यों का त्यों ही रहता है। यद्यपि उसके देह होती है तो भी