पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४५५

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स्थिति प्रकरण।

कोई आश्चर्य पदार्थ उसको नहीं दिखाई देते, उसके वासना के समूह नष्ट हो जाते हैं, चक्रवर्ती राजा की नाई शोभता है और परिपूर्ण होके स्थित होता है। जैसे क्षीरसमुद्र अपने आपमें पूर्ण नहीं समाता तैसे ही ज्ञानी अपने आपमें पूर्ण नहीं समाता। हे रामजी! इन जीवों को भोग की इच्छा ही दीन करती है जिससे वे आत्मपद से गिरते हैं और अनात्म में प्राप्त हो कृपण हो जाते हैं। उनको देखके उत्तम आत्मपद् आलम्बी हँसते हैं कि ये मिथ्या दीनभाव को प्राप्त हुए हैं। जैसे कोई स्वामी होकर स्त्री के वश हो और स्त्री स्वामी की नाई हो तो उसको देखके लोग हँसते हैं, तैसे ही ज्ञानवान् भाग की तृष्णावाले को दीन देखके हँसते हैं चञ्चल मन ही परम सिद्धान्त सुख से जीवों को गिराता है, इससे तुम मनरूपी हस्ती को विचाररूपी कुन्दे से वश करो तब सिद्ध-पद को प्राप्त होगे। जिसका मन विषयों की ओर धावता है वह संसार-रूपी विष का बीज बोता है, इससे प्रथम इस मन को ताड़न करो तब शान्ति को प्राप्त होगे। जो मानी होता है और कोई उसका मान करता है तो वह उपकार कुछ नहीं मानता पर जब प्रथम उसको ताड़न करके थोड़े ही उपकार किये से प्रसन्न होता है। जैसे धान्य जल से पूर्ण होते हैं तब जल के सींचने से उनमें उपकार नहीं होता और जो ज्येष्ठ आषाढ़ की धूप से तप्त होते हैं तो थोड़ा जल सींचने से भी उनको अमृतवत् होता है, तैसे ही जो प्रथम मन का सन्मान करिये तो मित्रभाव नहीं होता और यदि ताड़न करके पीछे सन्मान कीजिये तो उपकार मानके मित्रभाव रक्खेगा। ताड़न करना विषय से संयम करना है जब संयम करके निर्वाण हो तब यह सन्मान करना चाहिये कि संसार के पदार्थों में बर्त्ताना। तब वह शत्रुभाव को त्यागके मित्र हो जाता है, जैसे वर्षाकाल जब नदी जल से पूर्ण होती है तब उसमें जल का उपकार नहीं होता पर शरद्काल में जल का उपकार होता है। जैसे राजा को और देश का राज्य प्राप्त हो तो वह कुछ प्रसन्न नहीं होता पर यदि प्रथम उसे बन्दीखाने में डालिये और फिर थोड़े ग्राम दीजिये तो उससे प्रसन्न होता है, तैसे ही जब प्रथम मन को ताड़न कीजिये तब थोड़े सन्मान से भी