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योगवाशिष्ठ।

सुखदायक होता है। इससे तुम हाथ से हाथ दबाके, दाँतों से दाँत मिलाके और अंग से अंग रोकके इन्द्रियों को जीत लो। मनुष्य के हृदय में मनरूपी सर्प कुण्हल मारके बैठा है और कल्परूपी विष से पूर्ण है। जिसने उसका मर्दन किया है उसको मेरा नमस्कार है।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे स्थितिप्रकरणे शरीरनगरवर्णनन्नाम
त्रयोविंशतितमस्सर्गः॥२३॥

वशिष्ठजी बोले कि हे रामजी! अज्ञानी जीव महानरक को प्राप्त होता है। आशारूपी बाण की शलाका उसको लगती है और इन्द्रिय-रूपी शत्रु मारते हैं इन्द्रियाँ दुष्ट बड़ी कृतघ्न हैं, जिस देह के आश्रय रहती हैं उसको शोक और इच्छा से पूर्ण करती हैं। ये महादुष्ट और दु:खदायक भण्डार हैं, इनको तुम जीतो। इन्द्रियाँ और मनरूपी चील पक्षी हैं, जब इनको विषय भोग नहीं होते तब ऊर्ध्व को उड़ते हैं और जब विषय प्राप्त होते हैं तब नीचे को आ गिरते हैं। जिस पुरुष ने विवेकरूपी जाल से इनको बाँधा है उसको ये भोजन नहीं कर सकते जैसे—पाषाण के कमल को हाथी भोजन नहीं कर सकता। हे रामजी! ये भोग आपातरमणीय और अत्यन्त विरस हैं, जो पुरुष इनमें रमण करता है वह नरक को प्राप्त होगा और जो पुरुष ज्ञान के धन से सम्पन्न है और देहरूपी देश में रहता है वह परम शोभा पाता है और आनन्दवान् होता है, क्योंकि बड़े ऐश्वर्य से उसने इन्द्रियरूपी शत्रु जीते हैं। हे रामजी! सुवर्ण के मन्दिर में रहने से ऐसा सुख नहीं मिलता जैसा निर्वासनिक ज्ञानवान् को होता है। जिस पुरुष ने इन्द्रियों और असत्-रूपी शत्रु को जीता है वह परम शोभा से शोभता है—जैसे हिमऋतु को जीतके वसन्तऋतु में मञ्जरी शोभती हैं। जिस पुरुष के चित्त का गर्व नष्ट हुआ है और जिसने इन्द्रियरूपी शत्रु जीते हैं उसकी, भोग-वासना नष्ट हो जाती हैं—जैसे शीतकाल में पद्मिनियाँ नष्ट हो जाती हैं। हे रामजी! वासनारूपी वैताल निशाचर तब तक विचरते हैं जब तक एक तत्त्व का दृढ़ अभ्यास करके मन को नहीं जीतते, जब विवेक-रूपी सूर्य उदय होता है तब अन्धकार नष्ट हो जाता है। जब विवेक