पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४५७

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स्थिति प्रकरण।

से मनुष्य मन को वश करता है तब इन्द्रियाँ मृत्य (टहलुये) हो जाती हैं, मनरूपी सब मित्र हो जाते हैं और आप राजा होके स्वरूपराज को भोगता है। हे रामजी! विवेक की इन्द्रियाँ पतिव्रता स्त्रीवत् हो जाती हैं, मन माता की नाई पालना करनेवाला होता है और चित्त सुहृद हो जाता है। जब निश्चयवान् पुरुष सत्शास्त्र को विचारता है तब परम सिद्धान्त को प्राप्त होता है और मन अपने मननभाव को त्याग के शान्तरूप पितावत् प्रतिपालक हो जाता है। इससे तुम मन को विवेक से वश करो। मनरूपी मणि को आत्मविचार शिला से घिसो, विराग-जल से उज्ज्वल करो अभ्यासरूपी छेद करके विवेकरूपी तागे से पिरोय कण्ठ में पहिनो तो शोभा देती है। जन्मरूपी वृक्ष को विवेकरूपी कुल्हाड़ा काट डालता है और मनरूपी शत्रु को विवेकरूपी मित्र नष्ट करता है और सदा शुभकर्म कराता है और विषय के परिणामिक दुःख को निकट नहीं आने देता। इससे मन को वश करना ही आनन्द का कारण है। जब तक मन वश नहीं होता तब तक दुःख देता है और जब वश होता है तब सुखदायक होता है। हे रामजी! मनरूपी मणि भोग की तृष्णा से कलङ्कित हुई है, जब विवेकरूपी जल से इसको शुद्ध करे तब शोभायमान होगी। यह संसार महाभय का देनेवाला है। अल्प विवेकवान पुरुष भी मायारूपी संसार में गिर पड़ते हैं, तुम और जीवों की नाई इसमें मत गिरो। यह संसार मायारूप है और अनेक अर्थों की जंजीर संयुक्त है महामोहरूपी कुहिरे से जीव अन्धे हो गये हैं, इससे तुम विवेकपद का आश्रय करके बोध से सत् का अवलोकन करो और इन्द्रियों से वैरागरूपी नौका से संसारसमुद्र को तर जाओ। शरीर भी असत् है और इसमें सुख और दुःख भी असत् हैं। तुम दाम, ब्याल, और कट की नाई मत हो, पर भीम, भास और दट की स्थिति को ग्रहण करके विशोक हो। 'अहं' 'ममादिक' निश्चय वृथा है, उसको त्याग के तत्पद का आश्रय करो। चलते, बैठते, खाते, पीते मन में मनन का अभाव हो।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे स्थिति प्रकरणे मनस्विसत्यताप्रातिपादनन्नाम
चतुर्विशतितमस्सर्गः॥२४॥