पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४५९

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स्थिति प्रकरण।

कोप किया और जी से ठगना कि इनको मारूँ। ऐसे विचारके वह अमरपुरी पर चढ़ गया और देवता भयभीत होके सुमेरु पर्वत में भवानीशंकर के पास अथवा वन, कुञ्ज और समुद्र में जा छिपे। जैसे प्रलयकाल में सब दिशाएँ शून्य हो जाती हैं तैसे ही स्वर्ग शून्य हो गया। तब दैत्यराज अमरपुरी को शून्य देख के और भी कोपवान् हुआ और उसमें अग्नि जलाकर लोकपालों के सब पुर जला दिये और देवताओं को ढूँढ़ता रहा परन्तु वे कहीं न दीखे—जैसे पापी पुण्य को देखे और वे कहीं दृष्ट न आवें तैसे ही देवता कहीं दृष्ट न आये। तब सम्बर ने कुपित होके ऐसे बड़े बली तीन राक्षस सेना की रक्षा के निमित्त माया से रचे कि वे मानो काल की मूर्ति थे और उनके बड़े आकार ऐसे हिलते थे मानो पंखों से संयुक्त पर्वत हिलते हैं—उन्हीं के नाम, दाम, व्याल, कट हैं वे अपने हाथों में कल्पवृक्ष की नाई बड़े-बड़े शस्त्र और भुजा लिये यथा-प्राप्त कर्म में लगे रहें। उनको धर्म और कर्म का अभाव था, क्योंकि पूर्व वासना कर्म उनको न था और निर्विकल्प चिन्मात्र उनका स्वरूप था। वे अपने स्थूल शरीर के स्वभावसत्ता में स्थित न थे और अनात्मभाव को भी नहीं प्राप्त भये थे। एक स्पन्दमात्र कर्मरूप चेतना उनमें थी। वही कर्म का बीज चित्तकलना स्पन्दरूप हुई थी। वे मननात्मक शस्त्रप्रहार को रचे थे और उसी को करते, परन्तु हृदय में स्पष्टवासना उनको कोई न फुरती थी केवल अवकाशमात्र स्वभाव से उनकी क्रिया हो। जैसे अर्धसुषुप्त बालक अपने अङ्ग को स्वाभाविक हिलाता है तैसे ही वह वासना बिना चेष्टा करें। वे गिरना और गिराना कुछ न जानते थे और न यही जानते थे कि हम किसी को मारते हैं अथवा हमीं मरते हैं। वे न भागना जानें और न जानें कि हम जीते हैं व मरते हैं। जीत हार को वे कुछ न जानें केवल शस्त्र का प्रहार करें। जैमे यन्त्री की पुतली तागे से चेष्टा ना संवेदन करती है तैसे ही दाम, ब्याल और कट चेष्टा करें। वे ऐसे महाबली थे कि जिनके प्रहार से पहाड़ भी चूर्ण हो जावें। उनको देख के सम्बर प्रसन्न हुआ कि सेना की रक्षा को बड़े बली हैं और इनका नाश भी उनसे न होगा, क्योंकि इनको इष्ट-अनिष्ट कुछ