पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४६

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योगवाशिष्ठ।

की भोगवासना उसकी जड़ और सुख दुःख इसके फल हैं। तृष्णारूपी घुन उस शरीररूपी वृक्ष को खाता रहता है। जब उसमें श्वेत फूल लगे तो नाश का समय आता है अर्थात् मृत्यु के निकटवर्ती होता है। शरीररूपी वृक्ष की भुजारूपी शाखा हैं और हाथ पाँव पत्र हैं। टखने इसके गुच्छे भोर दाँत फूल हैं; जंघास्तम्भ हैं और कर्मजल से बढ़ जाता है। जेसे वृक्ष से जल चिकटा निकलता है वैसे ही जल शरीर के द्वारा निकलता रहता है। इसमें तृष्णारूपी विष से पूर्ण सर्पिणी रहती है जो कामना के लिये इस वृक्ष का आश्रय लेता है तो तृष्णारूपी सर्पिणी उसको डसती है और उस विष से वह मर जाता है। हे मुनीश्वर! ऐसे अमङ्गलरूपी शरीर वृक्ष की इच्छा मुझको नहीं है। यह परम दुःख का कारण है। जब यह पुरुष अपने परिवार अर्थात् देह, इन्द्रियाँ, प्राण, मन, बुद्धि और इनमें जो अहंभाव है इसका त्याग करे तब मुक्ति हो अन्यथा मुक्ति नहीं होती। हे मुनीश्वर! जो श्रेष्ठ पुरुष हैं वे पवित्र स्थान में ही रहते हैं अपवित्र में नहीं रहते। वह अपवित्र स्थान यह देह है और इसमें रहने वाला भी अपवित्र है। आस्थारूपी इस घर में इंटें हैं रुधिर, मूत्र और विष्ठा का गारा लगा है और मांस की कहगिल की है। अहङ्काररूपी इसमें श्वपच रहता है, तृष्णारूपी श्वपचिनी उसकी स्त्री और काम, क्रोध, मोह और लोभ इसके पुत्र हैं और आँतों और विष्ठादि से भरा हुआ है। ऐसे अपवित्र स्थान अमङ्गलरूपी शरीर को मैं अङ्गीकार नहीं करता। यह शरीर रहे चाहे न रहे इसके साथ अब मुझे कुछ प्रयोजन नहीं। हे मुनीश्वर! शरीररूपी बड़ा गृह है और उसमें इन्द्रियरूपी पशु हैं। जब कोई उस गृह में पैठता है तब बड़ी आपदा को प्राप्त होता है। तात्पर्य यह कि जो इससे महंभाव करता है तो इन्द्रियरूपी पशु विषयरूपी सींगों से मारते हैं और तृष्णारूपी धूलि उसको मलीन करती है। हे मुनीश्वर! ऐसे शरीर को मैं अङ्गीकार नहीं करता जिसमें सदा कलह रहती है और बानरूपी सम्पदा प्रवेश नहीं होती। शरीररूपी गृह में तृष्णारूपी चण्डी स्त्री रहती है; वह इन्द्रियरूपी दार से देखती रहती और सदा कल्पना करती रहती है उससे शम दमादिरूप सम्पदा का प्रवेश नहीं होता।