पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४६०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४५४
योगवाशिष्ठ।

नहीं है जिनको इष्ट-अनिष्ट का ज्ञान और वासना नहीं है उनका नाश कैसे हो और वे कैसे भागे। जैसे देवता के हाथी बड़े बली होके भी सुमेरु को नहीं उखाड़ सकते तैसे ही देवता बड़े बली भी हैं परन्तु इनको न मार सकेंगे। ये बड़े बली रक्षक हैं।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे स्थितिप्रकरणे दामब्यालकटोत्पत्तिवर्णनन्नाम पञ्चविंशतितमस्सर्गः॥२५॥

वशिष्ठजी बोले कि हे रामजी। इस प्रकार जब निर्णय करके सम्बर ने दाम, व्याल, कट स्थापन किये तो जब देवताओं की सेना भूतल में आती थी और सम्बर चढ़ता था तब वे भाग जाते थे। निदान सम्बर की सेना को देखके देवता भी समुद्र और पहाड़ से उछल के निकल दोनों बड़ी सेना सहित युद्ध करने लगे। जैसे प्रलयकाल के समुद्र क्षोभते हैं और सब जलमय हो जाता है तैसे ही देवता और दैत्य सब ओर से पूर्ण हो गये और बड़े बाणों से युद्ध करने लगे। शंखध्वनि करके जो शस्त्र चलते थे उनसे शब्द हों और अग्नि निकले और तारों की नाई चमत्कार हो। शरीरों से शिर कटें और धड़ काँप-काँप के गिर पड़ें और दोनों से शस्त्र चलें पर दाम, व्याल, कट न भागें, मारते ही जावें, जिनके प्रहार से पहाड़ चूर्ण हों सब दिशाओं में शस्त्र पूर्ण हो गये और रुधिर के ऐसे प्रवाह चले कि उनमें देवता दैत्य मरे हुए बहते जावें और महाप्रलय की नाई भय उदय हुआ। एक एक अब ऐसा चले जिससे शस्त्रों की नदियाँ निकल पड़ें। कोई अग्निरूप, कोई मेघरूप और कोई तमरूप भन्न चलावे, दूसरे प्रकाशरूप, कोई निद्रारूप, कोई प्रबोधरूप, कोई सर्परूप और कोई गरुड़रूप अब चलावें। इस प्रकार वे परस्पर युद्ध करें और ब्रह्मास्त्र चलावें और शिला की वर्षा करें। सब पृथ्वी रक्त और मांस से पूर्ण हो गई और अनेक जीवों के धड़ और शीश गिर पड़े जैसे वृक्ष से फल गिरते हैं तैसे ही देवता और दैत्य गिरे और बड़ा घोर युद्ध हुआ। बहुत से गन्धर्व, किन्नर और देवता नष्ट हुए और दैत्य भी बहुत मारे गये परन्तु दैत्यों की ही कुछ जीत रही। इस प्रकार मायावी सम्बर की सेना और देवताओं का युद्ध हुआ। जैसे वर्षा काल में आकाश में मेघ