पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४६५

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स्थिति प्रकरण।

जैसे समुद्र के उबलने से पृथ्वी जल से पूर्ण हो जाती है तैसे ही रुधिर से पृथ्वी पूर्ण हो गई और आकाशदिशा में अग्नि का तेज ऐसा बढ़ गया जैसे प्रलयकाल में द्वादश सूर्य का तेज होता है। बड़े पहाड़ों की वर्षा होने लगी और रुधिर के प्रवाह में पहाड़ ऐसे भ्रमते फिरते थे जैसे समुद्र में तरंग और भँवर फिरते हैं। हे रामजी! ऐसा युद्ध हुआ कि क्षण में पहाड़ और शस्त्र के प्रवाह, क्षण में सर्प, क्षण में गरुड़ दीखें और अप्सरागण अन्तरिक्ष में भासे, क्षण में जलमय हो जावें, क्षण में सब स्थान अग्नि से पूर्ण हो जावे, क्षण में सूर्य का प्रकाश भासे और क्षण में सर्व ओर से अन्धकार भासे। निदान महाभयानक युद्ध होने लगा। दैत्य आकाश में उड़-उड़के युद्ध करें और देवता वज्र आदिक शस्त्र चलावें और जैसे पंख से रहित पहाड़ गिरते हैं तैसे ही दैत्यों के अनेक समूह गिरके भूमिलोक में आ पड़े और उनमें किसी का शिर, किसी की भुजा और किसी के हाथ-पैर कटे हैं। वृक्षों और पहाड़ों के समान उनके शरीर गिर-गिर पड़े और अनेक संकट को देवता और दैत्य प्राप्त हुए।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे स्थितिप्रकरणे सुरासुरयुद्धवर्णनन्नाम अष्टाविंशतितमस्सर्गः॥२८॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! देवताओं का धैर्य नष्ट होगया और युद्ध त्याग के अन्तर्धान हुए और पैंतीस वर्ष के उपरान्त फिर युद्ध करने लगे। कभी पाँच व सात, कभी आठ दिन के उपरान्त युद्ध करते थे और फिर छिप जाते थे। ऐसे विचारकर छल से ये उनसे युद्ध करें कभी दाम, व्याल, कट के निकट जावें, कभी दाहिने, कभी बायें, कभी आगे और कभी पीछे दौड़ने लगे और इधर-उधर देखके मारने लगे। इस प्रकार जब देवताओं ने बहुत उपाय किया तब युद्ध के अभ्यास, से दाम, व्याल, कट भी देवताओं के पीछे दौड़ने लगे इधर-उधर देखने लगे और अपने देहादिक में उनको अहंकार फर आया। हे रामजी! जैसे निकटता से दर्पण में प्रतिविम्ब पड़ता है दूर का नहीं पड़ता, तैसे ही अतिशय अभ्यास से अहंकार फुर आता है अन्यथा नहीं फुरता। जब अहंकार उनको फुरा तब पदार्थों की वासना भी फुर आई और फिर यह फुरा कि