पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४६८

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योगवाशिष्ठ।

अज्ञान से जीव अनेक बार जन्मते हैं जैसे समुद्र में तरङ्ग उपजते और मिटते हैं और जल के भँवर में तृण भ्रमता है तैसे ही वासना भ्रम से वे फिरें। अब तक उनको शान्ति नहीं प्राप्त हुई। अहंकार वासना महादुख का कारण है, इसके त्याग से सुख है अन्यथा सुख कदाचित् नहीं।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे स्थितिप्रकरणे दामव्यालकटजन्मांतर- वर्णनन्नाम त्रिंशत्तमस्सर्गः॥३०॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! तुम्हारे प्रबोध के निमित्त मैंने तुमको दाम, व्याल, कट का न्याय कहा है, उनकी नाई तुम मत होना। अविवेकी का निश्चय ऐसा है कि अनेक आपदा को प्राप्त करता है और अनन्त दुःख भुगाता है, कहाँ सम्बर दैत्य की सेना के नाथ और देवताओं के नाशकर्त्ता और कहाँ तो जल के मच्छ हो जर्जरीभाव को प्राप्त हुए, कहाँ वह धैर्य और बल जिससे देवताओं को नाश करना और भगाना और आप चलायमान न होना और कहाँ क्रान्त देश के राजा के किंकर धीवर होना! कहाँ वह निरहंकारचित्त, शान्ति, उदारता और धैर्य और कहाँ वासना से मिथ्या अहंकार से संयुक्त होना। इतने दुःख और आपदा केवल अहंकार से हुए अहंकार से संसाररूपी विष की मंजरी शाखा प्रतिशाखा बढ़ती है। संसाररूपी वृक्ष का बीज अहंकार है। जब तक अहंकार है तब तक अनेक दुःख और आपदा प्राप्त होती हैं, इससे तुम अहंकार को यत्न करके मार्जन करो। मार्जन करना यह है कि अहंवृत्ति को असत् रूप जानो कि 'मैं कुछ नहीं'। इस मार्जन से सुखी होगे। हे रामजी! आत्मरूपी अमृत का चन्द्रमा है और शीतल और शान्तरूप उसका अंग है, अहंकाररूपी मेघ से वह अदृष्ट हुआ नहीं भासता। जब विवेकरूपी पवन चले तब अहंकाररूपी बादल नष्ट हो और आत्मरूपी चन्द्रमा प्रत्यक्ष भासे जब अहंकाररूपी पिशाच उपजा तब तो दाम, व्याल, कट तीनों मायारूप दानव सत् होके अनेक आपदाओं को भोगते हैं। अब तक वे काश्मीर के ताल में मच्छरूप से पड़े हैं और सिवाल के भोजन करने को यत्न करते हैं, जो अहंकार न होता तो इतनी आपदा क्यों पाते? रामजी बोले, हे भगवन्! सत् का प्रभाव नहीं होता और असत् का भाव नहीं होता।