पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४६९

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स्थिति प्रकरण।

असत् दाम, व्याल, कट सत् कैसे हुए? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! इस प्रकार है कि जो सत् नहीं सोभान नहीं होता परन्तु कोई सत् को असत् देखता है और कोई असत् को सत् देखता है—जो स्थित है। इसी युक्ति से तुमको प्रबोध करूँगा। रामजी ने पूछा, हे भगवन्! हम, तुम जो ये सब हैं वे सत्यरूप हैं और दामादिक मायामात्र असत् रूप थे वे सत् कैसे हुए, यह कहिये? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जैसे दामादिक मायारूप मृगतृष्णा के जलवत् असत् से स्थित हुए थे तैसे ही तुम, हम, देवता, दानव सम्पूर्ण संसार असत् मायामात्र सत् होके भासता है वास्तव में कुछ नहीं। जैसे स्वप्न में जो अपना मरना भासता है वह असत् रूप है तैसे ही हम, तुम आदिक यह जगत् असत्रूप है। जैसे स्वप्न में जो अपने मरे बान्धव आन मिलते हैं और प्रत्यक्ष चर्चा करते भासते हैं वे असत्रूप होते हैं, तैसे ही यह जगत् भी असत्रूप है। हे रामजी! ये मेरे वचन मूढ़ों का विषय हीं, उनको नहीं शोभते क्योंकि उनके हृदय में संसार का सद्भाव दृढ़ हो गया है और अभ्यास बिना इस निश्चय का प्रभाव नहीं होता। जैसा निश्चय किसी के हृदय में दृढ़ हो रहा है वह दृढ़ अभ्यास के यत्न बिना कदाचित् दूर नहीं होता। जिसको यह निश्चय है कि जगत् सत् है वह मूर्ख उन्मत्त है और जिसके हृदय में जगत् का सद्भाव नहीं होता वह ज्ञानवान है, उसे केवल ब्रह्मसत्ता का भाव होता है और अज्ञानी को जगत् भासता है। अज्ञानी के निश्चय को ज्ञानी नहीं जानता और ज्ञानी के निश्चय को अज्ञानी नहीं जानता। जैसे मदमत्त के निश्चय को अमत्त नहीं जानता और अमत्त के निश्चय को मत्त नहीं जानता तैसे ही ज्ञानी और अज्ञानी का निश्चय इकट्ठा नहीं होता। जैसे प्रकाश और अन्धकार और धूप और छाया इकट्ठी नहीं होती तैसे ही ज्ञानी और अज्ञानी का निश्चय एक नहीं होता। जिसके चित्त में जो निश्चय है उसको जब वही अभ्यास और यत्न करके दूर करे तब दूर होता है अन्यथा नहीं होता। ज्ञानी भी अज्ञानी के निश्चय को दूर नहीं कर सकता, जैसे मृतक की जीवकला को मनुष्य ग्रहण नहीं कर सकते कि उसके निश्चय में क्या है? जो ज्ञानवान् है उसके निश्चय में सर्व ब्रह्म का भान होता है