पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४७

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वैराग्य प्रकरण।

उस घर में एक सुवुप्तिरूप शय्या है जब उसके ऊपर वह विश्राम करता है तब वह कुछ सुख पाता है, परन्तु तृष्णा का परिवार अर्थात् काम, क्रोधादिक विश्राम नहीं करने देते। हे मुनीश्वर! ऐसे दुःख के मूल शरीररूपी गृह की इच्छा मैंने त्याग दी है। यह परम दुःख देनेवाला है, इसकी इच्छा मुझको नहीं। हे मुनीश्वर! शरीररूपी वृक्ष है उसमें तृष्णा रूपी काकिनी आकर स्थित हुई है। जैसे काकिनी नीच पदार्थ के पास उड़ती है वैसे ही तृष्णा भोग मादिक मलिन पदार्थों के पास उड़ती है। तृष्णा बन्दरी की नाई शरीररूपी वृक्ष को हिलाती है, स्थिर नहीं होने देती। जैसे उन्मत्त हाथी कीच में फँस जाता है तब निकल नहीं सकता और खेदवार होता है वैसे ही अज्ञानरूपी मद से उन्मत्त हुभा जीव शरीररूपी कीच में फंसा है सो निकल नहीं सकता, पड़ा हुआ दुःख पाता है। ऐसा दुःख देनेवाला शरीर है उसको मैं अङ्गीकार नहीं करता। हे मुनीश्वर! यह शरीर अस्थि, मांस, रुधिर से पूर्ण अपवित्र है। जैसे हाथी के कान सदा हिलते हैं, वैसे ही मृत्यु इसको हिलाती है। कुछ काल का विलम्ब है मृत्यु उसका पास कर लेवेगी; इससे मैं इस शरीर को अङ्गीकार नहीं करता हूँ। यह शरीर कृतघ्न है। भोग भुगतता है और बड़े ऐश्वर्य को प्राप्त करता है, परन्तु मृत्यु इससे सखापन नहीं करता। जीव इसको अकेला छोड़कर परलोक जाता है। जीव इसके सुख निमित्त अनेक यत्न करता है, परन्तु संग में सदा नहीं रहता। ऐसे कृतघ्न शरीर को मैंने मन से त्याग दिया है। हे मुनीश्वर! और आश्चर्य देखिये कि यह इसी के लिये भोग करता है पर उसके साथ नहीं चलता। जैसे धूल से मार्ग नहीं भासता वैसे ही यह जीव जब चलने लगता है तब शरीर से शोभवान होता और वासनारूपी धूलिसंयुक्त चलता है परन्तु दीखता नहीं कि कहाँ गया। जब परलोक जाता है तब बड़ा कष्ट होता है, क्योंकि शरीर के साथ इसने स्पर्श किया है। हे मुनीश्वर जैसे जल की बूंद पत्र के ऊपर क्षणमात्र रहती है वैसे ही शरीर भी क्षणभंग है। ऐसे शरीर में आस्था करनी मूर्खता है और ऐसे शरीर के उपर उपकार करना भी दुःख के निमित्त है सुख कुछ नहीं। धनाव्य इस शरीर से बड़े भोग भोगते हैं और निर्धन थोड़े