पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४७०

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योगवाशिष्ठ।

और उसे जगत् द्वैत नहीं भासता और उसी को मेरे वचन शोभते हैं। आत्म अनुभव सर्वदा सतरूप हे और सब असत् पदार्थ हैं। ये वचन प्रबुध के विषय है और उसी को शोभते हैं। अज्ञानी को जगत् सत् भासता है इससे ब्रह्मवाणी उसको शोभा नहीं देती। ज्ञानी को यह निश्चय होता है कि जगत् रञ्चमात्र भी सत्य नहीं, एक ब्रह्म ही सत्य है। यह अनुभव बोधवार का है, उसके निश्चय को कोई दूर नहीं कर सकता कि परमात्मा से व्यतिरेक (भिन्न) कुछ नहीं। जैसे सुवर्ण में भूषण भाव नहीं तैसे ही आत्मा में सृष्टिभाव नहीं अज्ञानी को पञ्चभूत से व्यतिरेक कुछ नहीं भासता, जैसे सुवर्ण में भूषण नाममात्र हे तैसे ही वह आपको नाममात्र जानता है, सम्यकूदर्शी को इसके विपरीत भासता है। जो पुरुष होके कहे, मैं घट हूँ तो जैसे यह निश्चय उन्मत्त है तैसे ही हम तुम आदिक भी असत्रूप हैं, सत् वही है जो शुद्ध, संवित्वोध, निरञ्जन, सर्वगत, शान्तरूप, उदय व अस्त से रहित है। जैसे नेत्र दूषणवाले को आकाश में तवरे भासते हैं तैसे ही अज्ञानी को जगत् सत्रूप भासता है। आत्मसत्ता में जैसा-जैसा किसी को निश्चय हो गया है तैसा ही तत्काल हो भासता है, वास्तव में जैसे दामादिक थे तैसे ही तुम हम आदिक जगत् हैं और अनन्त चेतन आकाश सर्वगत निराकार में स्फूर्ति है वही देहाकार हो भासती है। जैसे संवित् का किंचन दामादिक निश्चय से आकारवान् हो भासे तैसे ही हम तुम भी फुरने मात्र हैं और संवेदन के फुरने से ही स्थित हुए हैं। जैसे स्वप्ननगर और मृगतृष्णा की नदी भासती है तैसे ही हम तुम आदिक जगत् आत्मरूप भासते हैं। प्रबुध को सब चिदाकाश ही भासता है और सब मृगतृष्णा और स्वप्ननगरवत् भासता है। जो आत्मा की ओर जागे हैं और जगत् को ओर सोये हैं, वे मोक्ष रूप हैं और जो आत्मा की ओर से सोये और जगत् की ओर से जागे हैं वे अज्ञानी बन्धरूप हैं। पर वास्तव में न कोई सोये हैं, न जागे हैं, न बंधे हैं, न मोक्ष हैं, केवल चिदाकाश जगवरूप होके भासता है। निर्वाण सत्ता ही जगत् लक्ष्मी होकर स्थित हुई है और जगत निर्वाणरूप है—दोनों एक वस्तु के पर्याय हैं। जैसे तरु और विटप एक ही वस्तु के दो