पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४७६

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योगवाशिष्ठ।

देवें तो हम खवावें। तब वह ब्राह्मण सदाशिव की उपासना करने लगा और ऐसा तप किया कि शरीर अस्थिमात्र हो रहा और रक्त-मांस सब सूख गया। तब शिवजी ने प्रसन्न होकर दर्शन दिया और कहा, हे ब्राह्मण! जो तुम को इच्छा है वह वर माँगो। ब्राह्मण ने कहा, दूध और चावल दो। तब सदाशिव ने कहा दूध और चावल क्या, कुछ भोर मांग, पर जो तूने कहा है तो यही भोजन किया कर। तब उसको वही भोजन प्राप्त हुआ और शिवजी ने कहा जब तू चिन्तन करेगा तब मैं दर्शन दूँगा। हे रामजी! यह भी अपना पुरुषार्थ हुआ। त्रिलोकी की पालना करने श्वेत ने उद्यम करके जीता है और सावित्री का भर्ता मृतक हुआ था, पर वह पतिव्रता थी उसने स्तुति और नमस्कार करके यम को प्रसन्न किया और भर्ती को परलोक से ले आई—यह भी अपना ही पुरुषार्थ है। श्वेत नाम एक ऋषीश्वर था उसने अपने पुरुषार्थ से काल को जीतके मृत्युञ्ज नाम पाया। इससे ऐसा कोई पदार्थ नहीं जो यथाशास्त्र उद्यम किये से प्राप्त न हो। अपने पुरुषप्रयत्न का त्याग न करना चाहिये, इससे सुख, फल और सर्व की प्राप्ति होती है। जो अविनाशी सुख की इच्छा हो तो आत्मबोध का अभ्यास करो। और जो कुछ संसार के सुख हैं वे दुःख से मिले हुए हैं और आत्मसुख सब दुःख का नाशकर्ता है किसी दुःख से नहीं मिला वास्तव कहिये तो सम असम सर्व ब्रह्म ही है पर तो भी सम परम कल्याण का कर्ता है। इससे अभिमान का त्याग करके सम का आश्रय करो और निरन्तर बुद्धि से विचार करो। जब यत्न करके सन्तों का संग करोगे तब परमपद को प्राप्त होगे। हे रामजी! संसार समुद्र के पार करने को ऐसा समर्थ कोई तप नहीं और न तीर्थ है। सामान्य शास्त्रों से भी नहीं तर सकता, केवल सन्तजनों के संग से भवसागर को सुख से तरता है। जिस पुरुष के लोभ, मोह, क्रोध आदिक विकार दिन प्रति दिन क्षीण होते जाते हैं और यथाशास्त्र जिसके कर्म हैं ऐसे पुरुष को सन्त और आचार्य कहते हैं। उसकी संगति संसार के आपकों से निवृत्त करती है और शुभ में लगाती है। आत्मवेत्ता पुरुष की संगति से बुद्धि