पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४७८

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योगवाशिष्ठ।

से अनेक जन्मरूपी वृक्ष की परंपरा उदय और क्षय होती है और कभी नष्ट नहीं होती। इससे यत्न करके इसका नाश करो। जब तक अहंकाररूपी अन्धकार है तब तक चिन्तारूपी पिशाचिनी विचरती है और अहंकाररूपी पिशाच ने जिसको ग्रहण किया है उस नीच पुरुष को मन्त्र तन्त्र भी दीनता से छुड़ा नहीं सकते। रामजी ने पूछा, हे भगवन! निर्मल चिन्मात्र आत्मसत्ता जो अपने आप में स्थित है उसमें अहंकाररूपी मलीनता कहाँ से प्रतिविम्बित हुई? वशिष्ठजी बोले, हे राघव! अहंकार चमत्कार जो भासता है वह वास्तव धर्म नहीं मिथ्या है वासना भ्रम से हुआ है और पुरुष प्रयत्न करके नष्ट हो जाता है, न मैं हूँ, न मेरा कोई है 'अहं' 'मम' में कुछ सार नहीं। जब अहंकार शान्त होगा तब दुःख भी कोई न रहेगा। जब ऐसी भावना का निश्चय दृढ़ होगा तब अहंकार नष्ट हो जावेगा। आत्मा में अहं कोई नहीं, दृश्य में सारे हैं। इस प्रकार जड़ फुरनाशान्त हुभा तब अहंकार भी नष्ट हो जावेगा और जब अहंकार नष्ट हुआ तब हेयोपादेय बुद्धि भी शान्त हो जावेगी और समता आदिक प्रसन्नता उदय होगी। अहंकार की प्रवृत्ति ही दुःख का कारण है। रामजी ने पूछा, हे प्रभो! अहंकार और रूप क्या है, त्याग कैसे होता है, शरीर से रहित कब होता है और इसके त्याग से क्या फल होता है? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! अहंकार तीन प्रकार का है। दो प्रकार का श्रेष्ठ अहंकार अङ्गीकार करने योग्य है और तीसरा त्यागने योग्य है। इसका त्याग शरीर सहित होता है। यह सब दृश्य मैं ही हूँ और परमात्मा अद्वैतरूप हूँ मुझसे भिन्न कुछ नहीं यह निश्चय परम अहंकार है और मोक्ष देने वाला है—बन्धन का कारण नहीं, इससे जीवन्मुक्त विचरते हैं। यह अहंकार भी मैंने तुमको उपदेश के निमित्त कल्पके कहा है वास्तव में यह भी नहीं है केवल अचेत चिन्मात्रसत्ता है। दूसरा अहंकार यह है कि मैं सबसे व्यतिरेक (भिन्न) हूँ और बाल के अग्रभाग का सौवाँ भाग सूक्ष्म हूँ', ऐसा निश्चय भी जीवन्मुक्ति है और मोक्षदायक है—बन्धन का कारण नहीं। यह अहंकार भी मैंने तुमसे कल्पके कहा है, वास्तव में यह कहना भी नहीं है। तीसरा अहंकार यह है कि हाथ, पाँव आदि इतना मात्र