पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४७९

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स्थिती प्रकरण।

आपको जानना, इसमें जिसका निश्चय हे वह तुच्छ है और अपने बन्धन का कारण है। इसको त्याग करो, यह दुष्टरूप परम शत्रु है, इसमें जो जीव मरते हैं वे परमार्थ की और नहीं आते। यह अहंकाररूपी चतुर शत्रु बड़ा बली है और नाना प्रकार के जन्म और मानसी दुःख काम, कोष, राग, द्वैष आदिक का देनेवाला है। यह सब जीवों को नीच करता है और संकट में डालता है। इस दुष्ट अहंकार के त्याग के पीछे जो शेष रहता है वह आत्म भगवान मुक्तरूप सत्ता है। हे रामजी! लोक में जो वपु की अहंकार भावना है कि 'मैं यह हूँ, इतना हूँ' यही दुःख का कारण है। इसको महापुरुषों ने त्याग किया है, वे जानते हैं, कि हम देह नहीं हैं, शुद्ध चिदानन्दस्वरूप हैं। प्रथम जो दो अहंकार मैंने तुमको कहे हैं वह अङ्गीकार करने योग्य और मोक्षदायक हैं और तीसरा अहंकार त्यागने योग्य है, क्योंकि दुःख का कारण है। इसी अहंकार को ग्रहण करके दाम, व्याल, कट आपदा को प्राप्त हुए जो महाभयदायक है और कहने में नहीं आती और जिन्होंने भोगी है उनकी क्या कहना है, वह जानते ही हैं। रामजी ने पूछा, हे भगवन,! तीसरा अहंकार जो आपने कहा है उसका त्याग किये से पुरुष का क्या भाव रहता है और उसको क्या विशेषता प्राप्त होती है? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जव जीव अनात्मा के अहंकार को त्याग करता है तब परम पद को प्राप्त होता है। जितना जितना वह त्याग करता है उतना ही उतना दुःख से मुक्त होता है, इससे इसको त्याग करके आनन्दवान् हो। इसको त्याग के महापुरुष शोभता है। जब तुम इसको त्यागोगे तब ऊँचे पद को प्राप्त होगे। सर्व काल सर्व यत्न करके दुष्ट अहंकार को नष्ट करो, परमानन्द बोध के आगे आवरण यही है, इसके त्याग से बोधवान होते हैं। जब यह अहंकार निवृत्त होता है तबशरीर पुण्यरूपी हो जाता है और परमसार के आश्रय को प्राप्त होता है। यही परमपद है। जब मनुष्य स्थूल अहंकार का त्याग करता है तब सर्व व्यवहार चेष्टा में आनन्दवान होता है। जिस पुरुष का अहंकार शान्त हुआ है उसको भोग और रोग दोनों स्वाद नहीं देते जैसे अमृत से जो तृप्त हुआ है उसको खडा और मीठा दोनों स्वाद नहीं