पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४८०

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योगवाशिष्ठ।

देते अर्थात् राग-द्वैष से चलायमान नहीं होता एकरस रहता है जिसका अनात्मा में अहंभाव नष्ट हुआ है उसको भोगों में राग नहीं होता और तृष्णा, राग, द्वैष नष्ट हो जाता है। जैसे सूर्य के उदय हुए अन्धकार नष्ट हो जाता है तैसे ही अपने दृढ़ पुरुषार्थ से जिसके हृदय से अहंकार का अनुसंधान नष्ट होता है वह संसारसमुद्र को तर जाता है। इससे यही निश्चय धारण करो कि न मैं हूँ' न कोई मेरा है, अथवा सर्व मैं ही हूँ 'मुझसे भिन्न कुछ वस्तु नहीं यह निश्चय जब दृढ़ होगा तब संसार की द्वैत भावना मिट जावेगी और केवल आत्मतत्त्व का सर्वदा मान होगा।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे स्थितिप्रकरणे दाम, व्याल, कटोपाख्यानं नाम त्रयस्त्रिंशत्तमस्सर्गः॥३३॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जब दाम, व्याल, कट युद्ध करते-करते भाग गये तब सम्बर के नगर की जो अवस्था हुई सो सुनो। पहाड़ के समान नगर में जब सम्बर की जितनी कुछ सेना थी वह सब नष्ट हो गई तब देवता जीतकर अपने अपने स्थानों में जा बैठे और सम्बर भी क्षोभ को आके बैठ रहा। जब कुब वर्ष व्यतीत हुए तब देवताओं के मारने के निमित्त सम्बर फिर युक्ति विचारने लगा कि दामादिक जो माया से रचे थे सो मूर्ख और बलवान थे परन्तु मिथ्या अहंकार का बीज भवान उनको था इससे उनको मिथ्या अहंकार प्रान फुरा जिससे वे नष्ट हुए और भागे। अब मैं ऐसे योद्धा रच जो आत्मवेत्ता ज्ञानवान और निरहकार हों और जिनको कदाचित् अहंकार न उत्पन्न हो तो उनको कोई जीत भी न सकेगा और वे सब देवताओं की सेना मारेंगे। हे रामजी! इस प्रकार चिन्तन करके सम्बर ने माया से इस भाँति दैत्य रचे जैसे समुद्र अपने बुबुदे रच ले। वे सर्वज्ञ, विद्या के वेत्ता और वीतराग आत्मा थे और यथाप्राप्त काम करते थे। उनको आत्मभाव का निश्चय था और आत्मरूप उत्तमपुरुष उपजे। भीम, भास और दट उनके नाम थे। वे तीनों सम्पूर्ण जगत् को तृणवत् जानते थे और परम पवित्र उनके हृदय थे। वे गरजने और महावल से शब्द करने लगे जिससे आकाश पूर्ण हो गया तब इन्द्रादिक देवता स्वर्ग में शब्द सुनके बड़ी सेना संग लेकर आये