पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४८२

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योगवाशिष्ठ।

अर्थ चित्त में स्थित हैं। जब सत् का अवलोकन सम्यक्ज्ञान होगा तर यह लय हो जावेगा और परमपद शेष रहेगा। जो चित्त वासना संयुक्त है उसमें अनेक पदार्थों की तृष्णा होती है। जो मुक्त है उसे ही मुक्त कहते हैं और नाना प्रकार के घट पटादिक आकार चित्त के फुरने से अनेकता को प्राप्त होते हैं। जैसे परवाही से वैतालभ्रम होता है तैसे ही नानात्वभ्रम चित्त में भासता है। हे रामजी! जैसी जैसी वासना को लेकर चित्त स्थित होता है तैसा ही आकार निश्चय होकर भासता है। दाम, व्याल, कट का रूप चित्त के परिणाम से विपर्यय हो गया था, तुमको भीम, भास, दट का निश्चय हो, दाम, व्याल, कट का निश्चय न हो। हे रामजी! यह वृत्तान्त मुझसे पूर्व में ब्रह्माजी ने कहा था वही मैंने अब तुमसे कहा है। इस संसार में कोई विरला सुखी है, दुःख दशा में भनेक हैं जब तुम इस संसार की भावना त्यागोगे तब देहादिक में बन्धवान न होगे और व्यवहार में भी आत्मसत्ता न होगी। इति श्रीयोगवाशिष्ठे स्थितिप्रकरणे दाम, व्याल, कटोपाख्यान समातिवर्णनन्नाम चतुस्त्रिंशत्तमस्सर्गः॥३४॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! अविद्या से संसार की ओर जो मन सम्मुख हुआ है उसको जिस पुरुष ने जीता है वही सुखी ओर शूरमा है और उसही की जय है। यह संसार सर्व उपद्रव का देनेवाला है। इसका उपाय यही है कि अपने मन को वश करे। यह मेरा शास्त्र सर्व ज्ञान से युक्त है, इसको सुनके आपको विचारे कि यह जगत् क्या है? ऐसे विचारकर भोग से उपराम होना और सत्स्वरूप आत्मा का अभ्यास करना। जो कुछ भोग इच्छा है वह बन्धन का कारण है, इसके त्यागने को मोक्ष कहते हैं और सब कुछ शास्त्रों का विस्तार है। जो विषयभोग हैं उनको विष और अग्नि की नाई जाने। जैसे विष और अग्नि नाश का कारण हैं तैसे ही विषयभोग भी नाश का कारण हैं। ऐसे जान के इनका त्याग करे और बारम्बार यही विचार करे कि विषयभोग विष की नाई है। ऐसे विचार के जब विषयों को चित्त से त्यागोगे तब सेवते हुए भी ये दुःखदायक न होंगे। जैसे मन्त्रशक्तिसम्पन्न को सर्प दुःखदायक