पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४८३

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स्थिति प्रकरण।

नहीं होती तैसे ही त्यागी को भोग दुःखदायक नहीं होते। इससे संसार को सत् जानके वासना फुरती है सो दुःख का कारण है-जैसे पृथ्वी में जो बीज बोया जाता है सो ही उगता है, कटुक से कटुक उपजता है, मिष्ट से मिष्ट उपजता है, तैसे ही जिसकी बुद्धि में संसार के भोग वासनारूपी बीज है उससे दुःख की परम्परा उत्पन्न होती है और जिसकी बुद्धि में शान्ति की शुभ वासना गर्भित होती है उससे शुभ गुण, वैराग्य, धैर्य, उदारता और शान्तिरूप उत्पन्न होते हैं। जब शुभ वासना का अनुसन्धान होगा तब मन बुद्धि निर्मल भाव को प्राप्त होगी और जब मन निर्मल हुभा तब शनैः शनैः अज्ञान नष्ट हो जावेगा और सजनता बुद्धि होगी। जैसे शुक्लपक्ष के चन्द्रमा की कला बढ़ती जाती है। जब इन शुभ गुणों की परम्परा स्थित होती है तब विवेक उत्पन्न होता है और उसके प्रकाश से हृदय का मोहरूपी तम नष्ट हो जाता है तब धैर्य और उदारता की वृद्धि होती है। जब सत्संग और सत्शाख के अभ्यासदारा शुभगुण उदय होते हैं तब महा आनन्द का कारण शीतल शान्तरूप प्रकट होता है। जैसे पूर्णमासी के चन्द्रमा की कान्ति आनन्ददायक शीतलता फैलाती है तेसे ही सत्संगरूपी वृक्ष का फल प्राप्त होता है। हे रामजी! सत्संगरूपी वृक्ष से विवेकरूपी फल उत्पन्न होता है और उस विवेकरूपी फल से समतारूपी अमृत स्रवता है, उससे मन निर्दन्द और सर्वकामना से रहित निरुपद्रव होता है। मन की चपलता शोक और अनर्थ का कारण है, मन के अचल हुए सब शान्त हो जाता है। शास्त्र के अर्थ धारने से सन्देह नष्ट हो जाते हैं और नाना प्रकार की कल्पना जाल शान्त हो जाती है। इससे जीवन्मुक्त अलेप होता है, संसार का कोई क्षोभ उसको स्पर्श नहीं करता और वह निरीच्छित, निरुपस्थित, निलेप, निर्दुःख होता है। शोक से रहित हुआ चित्त जन्धि से मुक्त और परमानन्दरूप होता है। तृष्णारूपी सूत्र के जाल से जो पुरुष निकल गया है वही शूरमा है और जिस पुरुष ने तृष्णा नष्ट नहीं की वह अनेक जन्म दुःख में भ्रमता है। जब तृष्णा घटती है तब मन भी सूक्ष्म हो जाता है और जब भोग की तृष्णा नष्ट होती है