पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४८६

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योगवाशिष्ठ।

की नाई बुद्धि खिल आती है। मन ने ही सर्व पदार्थ रचे हैं जब उससे मिलकर तद्रूप हो जाता है उसका नाम असम्यक्ज्ञान है और जब सम्यक दृष्टि होती है तब उसका तत्काल नाश करता है। जब भीतर बाहर दृश्य को त्याग करता है और मन सत् भाव में स्थित होता है तब परमपद को प्राप्त हुआ कहाता है। हे रामजी! ये द्रष्टा और दृश्य जो स्पष्ट भासते हैं वे असत् हैं। उन असत् के साथ तन्मय हो जाना यह मन का रूप है जो पदार्थ आदि अन्त में न हो और मध्य में भासे उसको प्रसवरूप जानिये, सो यह दृश्य आदि में भी नहीं उपजा और अन्त में भी नहीं रहता, मध्य में जो भासता है वह असवरूप है। अजान से जिनको यह सत् भासता है उनको दुःख की प्राप्ति होती है। आत्मभावना बिना दुःख निवृत्त नहीं होता। जब दृश्य में आत्मभावना होती है तब दृश्य भी मोक्षदायक हो जाता है। जल और है तरङ्ग और है, यह अज्ञानी का निश्चय है। जल और तरङ्ग एक ही रूप है, यह ज्ञानी का निश्चय है। नाना रूप जगत् अज्ञानी को भासता है उससे दुःख पाता है और प्रहण और त्याग की बुद्धि से भटकता है। ज्ञानी को सर्व आत्मा भासता है और भेदभावना से रहित अन्तर्मुख सुखी होता है। हे रामजी! नानात्व मन के फुरने से रचा है और मन का रूप है अपने संकल्प का नाम मन है सो असवरूप है। जो असत् विनाशीरूप है उसको सत् मानने में क्लेश होता है। जैसे किसी का बान्धव परदेश से आता है और उसको वह नहीं पहिचानता अतः उसमें राग नहीं होता, पर जब उसमें अपने की भावना करता है तब राग भी होता है, तैसे ही जब आत्मा में अहं प्रतीति होती है और देहादिक में नहीं होती तब देहादिक सुख दुःख स्पर्श नहीं करते और जब देहादिक में भावना होती है तब स्पर्श करते हैं। हे रामजी! जब शिवतत्त्व का ज्ञान हो तब कोई दुःख नहीं रहता वह शिव द्रष्टा और दृश्य के मध्य में व्यापक है, उसमें स्थित होकर मन शान्त हो जाता है। जैसे वायु से रहित धूल नहीं उड़ती तैसे ही मन के शान्त हुए देहरूपी धूल शान्त हो जाती है और फिर संसाररूपी कुहिरा नहीं रहता। जब वर्षा ऋतु रूपी वासना क्षीण हो जाती है तब जाना नहीं जाता कि जड़ता रूपी