पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४८७

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स्थिती प्रकरण।

बेल कहाँ गई। जब अज्ञानरूपी मेघ शान्त होता है तब तृष्णारूपी बेल सुख जाती है और हृदयरूपी पवन से मोहरूपी कुहिरा नष्ट हो जाता है जैसे प्रातःकाल हुए रात्रि नष्ट हो जाती है। ज्ञानरूपी मेघ के क्षीण हुए देहाभिमानरूपी जड़ता जानी नहीं जाती कि कहाँ गई। जब तक अज्ञानरूपी मेघ गर्जता है तब तक संकल्परूपी मोर नृत्य करते हैं और जब अहंकाररूपी मेघ नष्ट हो जाता है तब परम निर्मल चिदाकाश आत्मारूपी सूर्य स्वच्छ प्रकाशता है। जब मोहरूपी वर्षाकाल कामभाव होता है तब ज्ञानरूपी शरत्काल में दिशा निर्मल हो जाती हैं और आत्मारूपी चन्द्रमा शीतल चाँदनी से प्रकाशता है। जो सर्व सम्पदा का देने और परमानन्द की प्राप्ति करनेवाला है। जब प्रथम शुभगुणों से विवेकरूपी वीज संचित होता है तब शुभ मन सर्वसम्पदा का देनेवाला परमानन्द अति सफल भूमि को प्राप्त होता है। उस विवेकी पुरुष को वन, पर्वत, चतुर्दश भुवन सर्व आत्मा ही भासता है और वह निर्मल से निर्मल और शीतल से शीतल भावना में भासता है हृदयरूपी तालाब अति विस्तारवान है और स्फटिकमणिवत् उज्ज्वल स्वच्छ जल से पूर्ण है उसमें धैर्य भौर उदारतारूपी कमल विराजते हैं और उस हृदयकमल पर अहंकाररूपी भँवरा विचरता है। वह नष्ट हो जाता है तो फिर नहीं उपजता। वह पुरुष निरपेक्ष, सर्वश्रेष्ठ, निर्वासनिक, शान्तिमय अपने देहरूपी नगर में विराजमान ईश्वर होता है। जिसको आत्मप्रकाश उदय हुआ है उस बोधवान् का मन अत्यन्त गल जाता है, भय आदिक विकार नष्ट हो जाते हैं और देहरूपी नगर विगतज्वर होके विराजमान होता है।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे स्थितिप्रकरणे उपशमरूपवर्णनन्नाम पञ्चत्रिंशत्तमस्सर्गः॥३५॥

रामजी बोले, हे भगवन्! आत्मा तो चेतनरूप विश्व से अतीत है, उस चिदात्मा में विश्व कैसे उत्पन्न हुआ? बोध की वृद्धि के निमित्त फिर मुझसे कहिये। वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जैसे सोम जल में तरङ्ग अव्यक्तरूप होते हैं परन्तु त्रिकालदर्शी को उनका सद्भाव नहीं भासता और उनका रूप दृष्टमात्र होता है तैसे ही आत्मा में जगत् संकल्पमात्र