पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४८९

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स्थिति प्रकरण।

कि यह पदार्थ है, यह मैं हूँ, यह और है इत्यादिक, पर जब अपने आपको जानता है तव अज्ञानभ्रम नष्ट हो जाता है। जैसे वृक्ष में बीजसत्ता परिणाम से आकार के आश्रय बढ़ता जाता है, तैसे ही आत्मसत्ता में चित्त संवेदन फुरता है। फुरना जो आत्मसत्ता के आश्रय विस्तार को प्राप्त होता है सो संकल्परूप है और उसमें जगत् की दृढ़ता है, जैसे संवेदन फुरता है तैसे ही स्थित होता है। उसमें नीति है कि जो पदार्थ जिस प्रकार हो सो तैसे ही स्थित है अन्यथा नहीं होता। जैसे वसन्तऋतु में रस अति विस्तार पाता है, कार्तिक में धान उपजते है, हिमऋतु में जल पाषाणरूप हो जाता है, अग्नि उष्ण है, बरफ शीतल है इत्यादिक जितने पदार्थ रचे हैं वैसे ही वे सब महाप्रलय पर्यन्त स्थित हैं, अन्यथा भाव को नहीं प्राप्त होते। जगत् में चतुर्दश प्रकार के भूतजात हैं पर उनमें जिनको आत्मज्ञान प्राप्त होता है वे ही शान्तरूप आत्मा पाके आनन्दवान होते हैं और जिनको प्रमाद है वे भटकते और जन्म- मरण को प्राप्त होते हैं। जैसे-जैसे कर्म वे करते हैं तैसी-तैसी गति पाते हैं और आवागमन में भटकते-भटकते यम के मुख में जा पड़ते हैं। जैसे समुद्र में तरङ्ग उपजकर लय हो जाते हैं तैसे ही जन्म-जन्म उपजते हैं मरते जाते हैं। उन्मत्त की नाई प्रमादी भ्रमते हैं।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे स्थितिप्रकरणे चिदात्मरूपवर्णनन्नाम षट्त्रिंशमत्तस्सर्गः॥३६॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! इस प्रकार जगत् की स्थिति है सो सब चञ्चल आकार और विपरिणामरूप है। जैसे समुद्र में तरङ्ग चञ्चलरूप हैं तैसे ही जगत् की गति चञ्चल है। आत्मा से जगत् स्वतः उपजता है, किसी कारण से नहीं होता, और पीछे कारण कार्य भाव हो जाता है और वही चित्त में दृढ़ हो भासता है, आत्मा में यह कोई नहीं। जैसे जल से तरङ्ग स्वाभाविक उठकर लय हो जाते हैं, तैसे ही आत्मा से स्वाभाविक जगत् उपज के लय होते हैं। जैसे ग्रीष्मऋतु में तपन से मरुस्थल जल की नाई स्पष्ट भासता है पर जल कुछ भी नहीं है और जैसे मद से मत्त पुरुष आपको और का और जानता है, तैसे ही ये पुरुष आत्मरूप हैं