पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४९१

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स्थिती प्रकरण।

किया और जो मूढ़ अज्ञानी हैं वे जैसा कर्म करते हैं वैसा ही फल भोगते हैं। मन में सत्य जानके जिस पदार्थ के ग्रहण की इच्छा करता है सो फुरना वासनारूप होता है उसी सद्भाव फुरने का नाम कर्तव्य है और उसी चेष्टा से फल की प्राप्ति होती है। जिस पदार्थ को सत् जानके वासना फुरती है उसका अनुभव होता है, शरीर करे अथवा न करे पर जैसी वासना मन में दृढ़ होती है वह शुभ हो अथवा अशुभ उसी के अनुसार दृश्य भासि आता है। शुभ से स्वर्ग भासता है और अशुभ से नरक भासता है। जिस पुरुष को आत्मा का प्रदान है यद्यपि वह प्रत्यक्ष अकर्ता है तो भी अनेक कर्म के फल को अनुभव करता है और जो ज्ञानवान् है उनके हृदय में पदार्थों का सद्भाव औरवासनादोनों नहीं होती, क्योंकि उनमें कर्तव्य का प्रभाव है। यद्यपि वे करते हैं तो भी कर्तव्य के फल को नहीं प्राप्त होते। और संसार को असत्य जानते हैं, केवल शरीर का स्पन्दमात्र उनका कर्म है, हृदय से बन्धवान नहीं होते। पूर्व के प्रारब्ध से सुख-दुःख फल उनको प्राप्त भी होता है परन्तु वे आत्मा से भिन्न उसको नहीं जानते, वे ब्रह्म ही देखते हैं और जो अज्ञानी हैं वे अवयव के स्पन्द में आपको कर्ता मानते हैं और उसके अनुसार सुख-दुःख भोगते और मोह को प्राप्त होते हैं। जिनका मन अनात्मभाव में मग्न है वे अकर्ता हुए भी कर्ता होते हैं और मन से रहित केवल शरीर से किया हुआ कर्म किया भी न किया है। इससे मन ही कर्ता है शरीर कुछ नहीं करता। यह सब जगत् मन से उपजा है, मनरूप है और मन ही में स्थित है जिसका मन अमनभाव को प्राप्त हुया है उसको सब शान्तरूप है जैसे तीक्ष्ण धूप से मृगतृष्णा की नदी भासती है और वर्षा होती है तब शान्त हो जाती है, तैसे ही जब आत्मज्ञान होता है तब यह सब जगत् शान्त हो जाता है और संसार के सुख-दुःख स्पर्श नहीं करते। न वह चञ्चल है, न सत्य है और न असत्य है, सर्वविकार से रहित शान्तरूप है। वह संसार की वासना में नहीं डूबता पर भवानी डूबता है, क्योंकि उसका मन संसार भ्रम में मग्न रहता और सदा पदार्थों की तृष्णा करता है, बानी नहीं करता। हे रामजी! और दृष्टान्त सुनो कि अज्ञानी को